Wednesday, February 20, 2013

दरअसल मैं चाहता हूँ एक विश्वास

आए वक्त मुझे लगता रहता है
यह दुनिया .. वे आप या मैं
और इन तमाम संबन्धों की छान
फैली है बस एक हाट की तरह
और मैं हाफ़ने लगता हूँ .. और अचानक
अजनबी हो उठता हूँ खुद से
गोया पूछूँ किससे कि मैं कौन हूँ

मुझे लगता है वे भी उलझ रहे होंगे इसी सवाल से

पर ऐसा है नहीं
लोग बाग कितनी आसक्ति से डूबे हैं अपनों में
नहीं उठता होगा उनके ज़ेहन में ऐसा सवाल
जैसा
मुझ आत्म-भोगी को लगता है .. मैं
पूछना चाहता हूँ किसी जानकार से
क्या मैं अधिक हूँ दुनिया के समीकरण से
या अन्धा हो चला हूँ
अपने ही अवगुण्ठनों में उलझ कर ..
या औरों की तरह हूँ मैं भी

मैं यह भी जानना चाहता हूँ
जो मेरे भीतर जमी बर्फ़ को पिघलाएगी
कहाँ जल रही है वह आग

मैं स्मरण नहीं कर पा रहा हूँ उस रात को
जिस रात मेरा आत्मप्रेम
अनूदित हो गया था आत्मभीति में
उस रात से भी साक्षात्कार करना चाहता हूँ मैं

दरअसल मैं चाहता हूँ एक विश्वास
एक दिलासा कि नहीं हो जाएगी
यह दुनिया अचानक लुप्त
नहीं हो जाऊँगा मैं एकान्त और अकेला
मैं महसूस करना चाहता हूँ
अपने को कहीं और .. किसी दूसरे हृदय में
किसी दिखता हुआ साया सा

2 comments:

कालीपद "प्रसाद" said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति
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रविकर said...

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