Wednesday, June 19, 2013

कुछ कविताएँ

एक 
वे दोनों
वे जो अपने अपकृत्य का
नाम दे रहे हैं परिवर्तन
और वे जो परिवर्तन को
कह रहे है कुकृत्य
दोनों के साथ है कुछ लोग
मचा हुआ है
घमासान उनमें
उछल रही हैं बदजुबानियाँ

उन दोनों ने थाम ली है
वक्त के घोड़े की लगाम
हतप्रभ है जनता
और कहीं ऊपर देख रही है
आस लगाए
इतिहास विधाता की ओर
बदल रहा है
बेबस वक्त अजनबी शक्ल में
दो 

मैंने माना था कि चाँद उजला है
और इसी दम पर
लगा दी थी बोली कि चाँद मेरा हुआ
जब खोला ढक्कन, हटाया पर्दा
तो आज तलक मुँह छिपाते फिर रहा हूँ

पुराने मुहावरों
और जड हो चुकी कहावतों से निर्देशित मैं
पहले भी हो चुका हूँ शर्मसार
कई कई बार
पर, हर बार घर के दरवाजे तक पहुँचा सच
रुग्न निकला
या काला-मुँह राक्षस
और परंपरा की बलवती धारा उसे
देवत्व से सुरक्षित करती रही
हर बार, बार बार

जल्दी में मत समझ लेना
कि काले चांद का मतलब अमावस हो जाता है
न,
गोकि काले चांद से निकलती है काली रौशनी
जिसमें काला सच चमकता है
सोने जैसा

बहुत बडी एक अदृश्य अलमारी है
मेरे पास भी
जिसमें मैंने भी संजोए हैं
कई रंगों और वर्णों के रुपहले सच
सो, सुनो ध्यान से
कि काली रौशनी की परछाई होती है झक सफ़ेद
और एकालाप की मानिंद नीरस होता है
उसके हास-रुदन का व्याकरण भी
तीन 

सुनो, समय क्या कुछ कहता है
सिर्फ़ आस पास की बहकी और बहशी बातें
सुरूर दिलाती हों
यह मुमकिन है मगर
समय को अनसुना करने वाले के साथ
कभी न्याय नहीं करता है इतिहास विधाता

एक समय ही है
जो दोहराता नहीं है अपने को
न अपनी बात के उच्चारण को स्पष्ट करता है
न रचता है कोई दस्तावेज़
और तो और वह इतना महीन वार करता है
कि हमें महसूस करने का
एक पल तक नहीं देता

लेकिन समय है वह
हमारी सोच में भी और हमारी सोच के बाहर भी
और हम एक दूसरे की बदसूरत निहारने में बेहाल
और साफ़ कहें तो
निढाल पडे हैं किसी कमरे में
गोल बनाकर बैठे से

जैसे तुम मेरी बातों को अनसुना कर रहो
मुमकिन है
कि कर रहे होगे
समय के बयान को भी नज़र-अन्दाज़
कृतघ्नता की घुट्टी
हम सबने अकेले अकेले पी तो है ही
समय तो आता नहीं किसी हाथ पकडने
खेलो, खाओ, आंखों से गाओ, दिल से बजाओ

पर एक कवि फिर भी यह कहेगा जरूर
कि सुनो
समय क्या कुछ कहता है
इसके लिए इतना तो करना होगा
कि निकलना होगा अपने सुरक्षित खोल से
चार 
तुम्हारे लिए
मुझे महसूस हुआ, धूप बहुत तेज है
और मैं निकल पडा धूप में ही
पैरों में दर्द है, मुझे मालूम था
और मैं भागा आ रहा था उस ओर
कई बार पहले ही गिन चुका था मैं
कि पैसे बहुत थोडे हैं मेरे पास
मैंने खरीद लिया महंगा गुलदस्ता

इसके अलावा
मेरे पास कुछ और न था तुम्हारे लिए
 
पाँच

धरती मैया
सिर्फ़ मिट्टी नहीं
भले ही वह
सब कुछ सहती है
और बस चुप रहती है
यह किसी गंगा माँ से अधिक पवित्र है
उससे कहीं अधिक उदात्त
उसका चरित्र है
जो जमाने का पाप सोख लेती है
और बदले में
देती है जीवनदायी अंकुर
छह
वह प्रेम
जिसके लिए
तुम लालायित रहे
अनैतिक था
तुम्हारी ही नज़रों में

पर तुम
अपने चरित्र के डर से
सहमे रहे

सो तुम तो छोड ही दो
ललकना
प्रेम के लिए

प्रेम
यह कोई जिम्मेदारी नहीं
मुक्ति-गीत है
सात 
अचानक आ गई बारिश सी
तुम्हारी साँसें
कि उगने लगा मन का बिरवा
कि अपने आप
ख़ुद में समा गई धरती
बज उठी वीणा हृदय की
बेसुध हुए तुम
आवारा हुआ प्रेम का पंछी

इस तीखी धूप में मैंने
बुना कोई सपना

पर तुम्हीं कहो
क्यों चल पड़ी है मछली
प्रवाह के विरुद्ध
क्षितिज के पार कहीं जब
बजने लगी बांसुरी
मैं भींगता रहा, हाँफता रहा, भागता रहा
आठ 
कभी कभी ऐसा समय भी आता है
कि आप मौन रह जाने के सिवा कुछ नहीं कर सकते
मैं अभी मौन हूँ
यह मेरी स्वेच्छा नहीं विवशता है
और आप इसे मेरी स्वेच्छा और मुझे स्वेच्छाचारी कह रहे हैं

कभी कभी ऐसा समय आता है
जब लोग आपको सर के बल चलते दीखते हैं
जबकि आप चल रहे होते हैं अपने सलामत पाँव पर
ऐसे समय में जब आप
उन्हें समझाने का यत्न करते हैं
तो लोग आपको दयनीय मानकर
मुस्कुराते बहलाते आपकी बातें सुनते हैं

कभी कभी ऐसा समय भी आता है
जब आप चींख रहे होते हैं
और आपकी आवाज़ नहीं निकल रही होती है
ऐसे समय में मैं सिर्फ कविता बोलता हूँ
बिना आवाज़ की कविता

कभी ऐसा समय भी आता है
जब आप बिना आवाज़ की कविता बोलते हैं
और वे बिना शब्दों के सुनते हैं , समझते हैं
यह ऐसा समय होता है
जब ख़ामोशी भी है, आवाज़ भी .. शब्द भी, निःशब्द भी

जो नहीं होता है
वह है तुम्हारा और मेरा सर
नौ 
लौट रहा था काम से जब
लौट रहा था शाम को वह
लौट रहा था थक गया सा
लौट रहा था फिर जाने को
सचमुच, लौटना
एक जटिल प्रक्रिया है
एक लौटने भर से
निपटा लेता है इतने सारे काम
फिर भी, दिखाता नहीं है घमंड
कभी भी
बल्कि घंमड करना बुरा है
उसने ठहर कर सोचा ही नहीं
वैसे बहुत सी बुरी आदतें हैं उसमें
मसलन, बीड़ी पीना, जहाँ तहाँ थूकना
नींद में खर्राटे लेना ...
इनके लिए शर्मिंदा नहीं है वह
जैसे शर्मिंदा होना सीखा ही नहीं उसने
पर डरता है वह
अपने सुपर्वायज़र से
अतीत से , भविष्य से , पत्नी से , पुलिस से
चोरों से ..
कभी कभी कहता है वह
चोरों को चोरी नहीं
कुछ काम करना चाहिए
 
 
 
 
 

Monday, April 8, 2013

टूटे बिखरे सच को

टूटे बिखरे सच को
जब कोई
पिरोने की कोशिश करता है सपनों से
तो वह संकोच के मारे वीतराग हो जाता है
और दुनिया को बदल देने की ज़िद में
हो जाता है दीवाना
यह सच है समय का
तेरा मेरा या किसी और का नहीं

यह समय, जो दुनिया है
यह दुनिया
जो एक खेल है जहां नाजुक और मासूम होने का
एक व्यवस्थित अर्थ है
अपना निश्चित संदर्भ है
कठोर और अक्लमंद होने का

कोई नकारा छोटा सा वियतनाम
बचा लेता है अपना वज़ूद
और भीमकाय सोवियत संघ हो जाता है खंडित
दुनिया के खेल में जहां कोई
सूत्रधार नहीं, सबकी भूमिका
खुद की तय की हुई होती है

कोई दर्दनाक भूमिका निभाता है
तो कोई शर्मनाक
भलाई या मक्कारी हिस्सा है चरित्र का ही
किसी को न तो शर्म आती है
न किसी को लगता है डर
न आज से
न आने वाले कल से

तो भी, जिसने जितना तोडा है
जितना बिखेरा है
संभालना होगा उसे ही
कोई सिद्धान्त, कोई सपना
तंद्रा तो देगा,
किसी सूरत रिहाई नहीं

Wednesday, March 20, 2013

बीस और छोटी कविताएं

१.
उस सुनसान रास्ते पर
एक बांसुरी मिली
उठाकर
जैसे ही होठों से लगाया
एक स्त्री की रोने की आवाज़ निकली
और छिटककर
दूर जा गिरी वह बांसुरी
बन खडी हुई
फुफकारता सांप बन कर
रोने की आवाज़ बदल गई
कहकहे में

मैं हतप्रभ हो
तुम्हें याद करने लगा


२. एक
इतना भी जरूरी न था कि मैं कुछ बोलूं
या कुछ बोलो ही तुम
हम ने महसूस किया ही है
कि टूटता ही है कुछ न कुछ
बोलने से
नहीं बोलने का अर्थ
खामोशी ही नहीं, कुछ और भी होता है

दो
हजारों की भीड में
तुम्हारी आंखें
पहचान लेती है मुझे
और देखकर मुस्कुराती है
क्या खूबसूरत कहलाने के लिए
कुछ और करना
शेष है ?


३.
एक चेहरा
तुम्हारी संभावनाओं सा
एक सच
प्रेम की अभिलाषाओं सा
दोनों के बीच
न बने रिश्ता .. इस जिम्मेदारी को उठाओ
वरना गज़ब हो जाएगा


४.
तुम शक्ति और मुक्ति का उत्सव मनाते रहे
वे व्यभिचार का मोद मनाते रहे
नशे में वे
उत्साह में तुम
पर आलम मदहोशी का ही पसरा रहा
और आधी आधी रात को हरकारा
क्रान्ति नाद करता रहा

सच कहीं बिलखता रहा
अवांछित और तिरस्कृत भ्रूण सा
उस बालरूम डांस फ़्लोर पर पसरा रहा
तिलस्मी भोर
बेबस कवि तुम्हें देता है बधाइयां
सभ्यता के नए आगाज़ की
लो, स्वीकार करो इन्हें


५.
नदियों के विषय में
इतिहास बताता है
कि नदियों ने सर्वस्व लगाकर
सभ्यता विकसित की
और उन्हीं से सभ्य हुए
मानवों ने उन्हें दूषित किया
लेकिन इतिहास की किताब
यह नहीं बता पाती
कि नदियों के दूषित हो जाने से
सभ्यता नष्ट हो जाएगी


६.
तुम अपनी बात कहो
उसे अपनी बात कहने दो
और मुझे भी कहने दो
अपनी बात
हम सायबर स्पेस के लोग हैं
जो एक दूसरे से टकराते नहीं
सो घबराएं ही क्यों
एक दूसरे से


७.
आज़ाद होना नियति रही उसकी
पर कभी न मना पाई
मुक्ति-पर्व का उत्सव
निरीह आंखों से सिर्फ़ देखती रही
टुकुर टुकुर
मुक्ति से लहू-लुहान .. क्षत-विक्षत


८.
नदी को जो नहीं मिले
किनारों की मर्यादा
कुछ देर
एक सैलाब सा नज़र आएगी
फिर बिखर जाएगी
अपने वजूद के साथ


९.
कुछ कोसना, कुछ धमकियां,
कुछ फब्तियां, कुछ गालियां
करीने से सजाना नहीं भी आए
तो लिख दो बेतरतीब ही
हमारे समय के लोग
इसे ही कहते हैं कविता
अपने खिलाफ़ सुनना
और सुनकर मन्द मन्द मुस्कुराना
संपन्नताजन्य अभिचार है
कि जैसे अबोला अबोध शिशु खींचता है
मुसडंडे गुंडे की मूंछें
और वह मुसडंडा लेता है मजा


१०.
कोई पूछता है क्या हाल है
जवाब मिलता है बहुत बढिया
दोनों मुस्कुराते हैं ..


११.
ऐसे ही बने रहो
करता हूं न
तारीफ़
कई और लोग करंगे
कोई जब पुतला बन जाता है
हमें बडा ही भाता है


१२.
तुम्हारे दिल में
जो मैं नहीं उतरा
तो भाड में झोंक दो
मेरी कविता को

अगर बचा रह गया है
दस्तक देना
तो मुझे
होने की तमीज न आई


१३.
उन्हें मिला
मकाम
इन्हें
तमाशा
दोनों गुदगुदते
अन्दर से


१४.
मैं कभी सच के साथ न था
सच के विश्वास के साथ
बना रहा
और होते रहे आघात
बार बार
मेरे विश्वास पर


१५.
सपनों में साझेदारी
चचबा चिल्लाएगा .... बरगलाएगा
घबराना नहीं
गाना जोर जोर से
अपने गीत
यही एक जरिया है
सपनों की साझेदारी का
वह युवा युवा कहेगा
और मार डालेगा भरी जवानी में
चचबा कुंठित है बहुत


१६.
तुमने चन्द पीले पत्ते
टूट कर गिरते देखे
और मान लिया
कि उजड गई कायनात
ये न देखा कि वे पत्ते
नए पत्तों की राह में
रोडे बन कर
सदियों से खडे पर
लहराते रहे इतराते रहे
शोक न मनाओ
खुशियों के फाग गाओ


१७.
सनातन रिवाज है
उगते
और डूबते सूरज की सलामी
दोपहर के सूरज से
खतरा
महसूस किया जाता है
बस सर्दियों के सूरज को
मिल जाता है दाद
गाहे ब गाहे
अपनी हिन्दी पट्टी में


१८.
हाय हाय करना
तो सभी जानते हैं
पर लोग बाग
आवाज़ सुनकर ही देते हैं
अपनी सहानुभूति

वैसे नकली और बनावटी आवाज़ें
बटोर पाती हैं
अधिक सहानुभूति
सो ध्यान से सुनो
अपनी आवाज़ को
कहीं वह असली तो नहीं


१९.
जब वे कहते हैं
उनकी पसलियों से रिस रहा है
मवाद
इन्हें खुशबू आती है
कमलिनी की
भर लेते हैं नथनों में
हालंकि कहते हैं
आह !


२०.
सुनो ओ राजे
नहीं चलना अब हमें
तुम्हारे बनाए रास्ते पर
जहां लगा रखा है
चुंगी नाका
कदम कदम पर

चलना तो पडेगा
सो बना लेंगे खुद
उस बीहडों में रास्ता
और जब तुम
कभी आओगे
उस रास्ते
हम नहीं पूछेंगे
कि कौन हो तुम



                   

Monday, March 18, 2013

देखो देखो जागा फाग

देखो देखो जागा फाग।
बूढा बैरागी भी गाए झूम झूम कर गाए राग ॥

तिनक तिनक धिन मत्त कामिनी
रग रग से रिस रही रागिनी
छन वियोग में रूठी बैठी
शून्य भवन में तृषित भामिनी
सारा वैभव छार लगे जो डसे विरह का नाग॥

व्यभिचारी ने पंख पसारे
खंजन और पंडुकी मारे
पीले पीले दांत खोलकर
हसते खीखी मटकी मारे
रसिया रूप हृदय से दानव पिकी भेस में काग॥

प्रिय के सपने बुनती बैठी
खुद ही खुद में खोयी पैठी
उचक उचक कर कहे उचक्के
भाव न देती है यह ऐंठी
प्रिय का रूप अरूप लिये जो रैन कटे नित जाग ॥