Monday, June 23, 2008

एक लड़की सांवली-सी


एक लड़की सांवली-सी
हँस-मुख भी
पढ़ती है किताब नए ज़माने की
सिखती है सबक
दुनिया बदलने की
करती है कोशिश
रूढ़ियाँ मिटाने की
और करती है भरोसा पेशेवर अध्यापकों का.

पेशेवर अध्यापक चलाते हैं ब्यूरो
नए ज़माने का
दुनिया बदलने का
रूढ़ियां मिटाने का
इनमें से कुछ तो कमाते हैं
कुछ खुजली मिटाते हैं
कुछ मन मसोसकर रह जाते हैं.

सांवली-सी मासूम लड़की
गरीब न होती तो बन जाती
फैशन-डिज़ायनर
या अमेरिका जाकर पढ़ती मैनेजमेंट
कभी न करती--प्रेम या क्रांति
प्रेमकथा और क्रांतिकथा के मध्यवर्गीय पाठ ने
भरमा दी बुद्धि
कि तौल न पाई अपना वजन
गलती तो हुई उससे
फिर क्यों करे अफ़सोस कोई
उसकी आत्म-हत्या पर!

नहीं टूटे थे पुराने संस्कार उसके
मांग करती थी आज भी
इंसानियत की
वफादारी की
इज्ज़त और नैतिकता की
जबकि
बता दिया गया था उसे पहले ही
सिद्धान्त उसके विरूद्ध हैं.

3 comments:

महेन said...

मैं मूक हूँ।

Anonymous said...

महेन्द्र जी आपके मूक होने की वजह समझ में नहीं आई, कुछ विस्तार से बताइए जनाब.
मुझे तो कविता मूकपन के विरूद्ध गतिशील माध्यमों की कार्यप्रणाली व प्रक्रिया में संशोधनों की अनिवार्यता पर बल देती नज़र आई.

महेन said...

जब भावनाएँ प्रबल होती हैं तो शब्द घटित होना बंद कर देते हैं इसलिये मैं मूक हूँ, इसलिये नहीं कि आपकी बात से असहमति है, वरन मैं तो पूरी तरह से सहमत हूँ। यह ऐसी मूकता है जैसे अपने को किसी घटना के बीच पाकर तटस्थ होकर उसे पूरा घटित होते देखना। ऐसा ही तब भी लगा था जब कोई 13 साल पहले फूटती जवानी के दिनों में शेखर एक जीवनी पढ़ा था।