Saturday, June 21, 2008

वह फूल नहीं







अपरिचित चेहरे पर परिचित मुस्कान !
जी करता है
सजा लूँ अपने गुलदान में
इन अज़नबी फूलों को ....
कसे बदन की लचक
दूर उड़ती पखेरू-पंखों-सी शरारती आँखें
देवस्थान के लिपे प्रांगन-सी शीतल भंगिमा
न कोई भय
और न संकोच
निरंतर स्नेह की पीत शोभा
किंतु गतिमान
मैंने देखा
सहज ही टपकते मधु
फूलों से
स्वायत्त अभिलाषा के आस-पास मैंने
फूलों से चिनगारियाँ निकलते देखा
बदल लिया विचार
गुलदान में सजाने का
एक कविता ही बहुत है
जटिल आकाँक्षाओं के रूबरू
एक बाज़ार है
सर्पिल कुटिल रास्ते है
स्वप्निल मेघ छाए है
दरअसल,
गलती हुई है मुझसे ही
वह अजनबी फूल नहीं
ब्रैंडेड सामान है कोई.

3 comments:

भास्कर रौशन said...

topic aur full stop nahi dikha. kavita ka paath aasaan ho jata hai. shesh sab thik hai. full stop se

भास्कर रौशन said...

full stop se kavita ka paath aasaan ho jata hai. pehle comment me hui galati ke liye sudhaar roop me ye comment bhej raha hun.

महेन said...

आपकी कवितायें पढ़कर रोने-हंसने को होता हूं अकसर। मगर बहुत ही कम लिखा है आपने ब्लोग पर। मात्रा बढ़ाइये ज़रा। आना तो लगा ही रहेगा मेरा।
शुभम।