Thursday, July 3, 2008

सुनो ओ शकुन्तलाओ



सुनो ओ शकुन्तलाओ!
मत इतराओ कि तुम दुष्यन्त-प्रिया हो
तुम्हारे उन्मत्त यौवन से बौखलाया कोई
अपनी तृप्ति करने को
बहलाता है तुम्हें
मीठी-मीठी लुभावनी बातों से
जबकि होता नहीं बातों का कोई खतियान
पौरूष उत्कर्ष सहने के एवज में
भले ही मिले कोई
कीमती मुद्रिका
उसे बेचा भी तो नहीं जा सकता खुले बाजार में
हो सकता है
अस्वीकार कर दे तुम्हारे गर्भ को
बरतनी थी सावधानियाँ पहले ही
अब ढोओ उत्सर्जन उसका
बनाकर अपने शरीर का हिस्सा
मानो उसे जीवन का सर्वस्व....
कभी मौके पर
हो जाएगा वह अक्षम जब
उसे महसूस होगी आवश्यकता उत्तराधिकारी की
तुम्हें ढ़ूँढे
प्रामाणिक रक्त-पुत्र की तलाश में
इस दायित्व को निभाने में
बीत तो जाएगा ही एक जीवन
मरते हुए हो सकता है तुम विधवा रहो दुष्यन्त की
लेकिन आज तुम दुष्यन्त-प्रिया नहीं
सुनो ओ शकुन्तलाओ!

8 comments:

महेन said...

वह यदि दुष्यंत-प्रिया न होना चाहे तो शायद फ़र्क न पड़े। दुष्यंत भी शकुंतला प्रिय नहीं रह जाएगा तब। यह मानवीय द्रष्टिकोण नहीं है पुरुष द्रष्टिकोण है, तो भी आपकी बात का तात्पर्य मैं समझ रहा हूँ हालांकि मुझे यह गाह्य नहीं हो रहा।
कविता हमेशा की तरह अच्छी लगी।
शुभम।

art said...
This comment has been removed by the author.
Anonymous said...

यह कविता पुरूष दृष्टिकोण के विरूद्ध स्त्रियों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण से लिखा गया है. पुरूषों की मानसिकता सामान्यत: दुष्यंतपरक ही होती है एेसे में शकुन्तलापरक स्त्रियों की चिंतन में भी परिवर्तन की जरूरत है. कविता इसी जरूरत को इंगित कर रही है.
मुझे एेसा ही लगा. पर अच्छा लगा इसमें संदेह नहीं.

रवीन्द्र दास said...

swati,
aap mahen ki kis baat se sahmat hain,yah meri samajh me nahin aayaa.main is blog ka kavi hun.vaise bhi kavi hoon.aapki sahmati kavita-virodhi lagti hai.jaldi me kuchh kah denaa thik hai kya.halaki mitra mahen bhi jaldi me kuchh kah gaye. kavita ke shabd jab samapt hote hain arth tab shuru hotaa hai.n n ,samajha nahin raha nivedan kar raha hoon.aap sabhi mitra baar baar aayen.swagat to main kar hi raha hoon.aakhir me, kisi se sahmat mat hoven.aap bhi kuch kahen apni baat,sahmati ke viruddh, aapki apni vyaktita

महेन said...

बंधु।
कविता की व्याख्या सभी अलग तरीके से करते हैं और मत भी सभी के अलग होते हैं। पहले कविता की बात कर लेते हैं फ़िर दूसरी।
इस कविता की व्याख्या में कोई उलझन नहीं है इसलिये अंतर सिर्फ़ मत का ही हो सकता है, जोकि मैंने पहली टिप्पणी में ही स्पष्ट कर दिया था। शायद मेरे कहने में कोई त्रुटि रह गई थी…
आप पहली ही बात जो मानकर चल रहे हैं कि पुरुष ने स्त्री को भोगा और त्याग दिया; गर्भवती हुई तो आपको लगा कि बोझ मात्र उसे ढोना पड़ेगा। फ़िर आप कहते हैं कि यदि पुरुष को आवश्यकता हुई तो तुम्हे ढूँढेगा अन्यथा नहीं और ऐसा होने में पूरा जीवन व्यर्थ हो जायेगा। पूरा घटनाक्रम पढ़कर लगता है जैसे स्त्री ने ही सबकुछ खोया है, पुरुष ने कुछ भी नहीं। स्त्री यदि इस दृष्टिकोण से न देखकर यह मानकर चले कि जितना उसने खोया है पुरुष का खोना उससे ज़्यादा रहा तो उसका जीवन बहुत आसान हो जायेगा। मेरे तईं यह स्त्री, चाहे शकुंतला हो चाहे सीता, बलि का पशु नहीं है मगर आप उसे ऐसा बना रहे हैं। मेरा विरोध यहीं से शुरु हो जाता है। दोनों ने एक दूसरे को भोगा है अपनी सहमति से। उसे न दुष्यंत प्रिया होने की आकांक्षा होनी चाहिये न दुष्यंत विधवा। जिसने स्त्री को त्यागा, स्त्री को भी उसे त्याग देना चाहिये। यह बराबरी का सिद्धांत है और एक कवि का चिंतन भी। हाँ महेन नाम के कवि का चिंतन रवीन्द्र नाम के कवि से भिन्न हो सकता है।
यहां हमारा मतभेद है। किंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि मैं आपको यह कहने की छूट दूँ कि "मित्र महेन भी जल्दी में कुछ कह गए।" शायद आपको पता नहीं होगा कि आपके ब्लोग का लिंक मैंने अपने ब्लोग पर लगाया हुआ है जिससे अच्छी कवितायें मेरे पाठकों तक पहुँचे और मुझे भी पता चलता रहे कि चंद अच्छे लेखकों ने क्या नया लिखा है और मैं समय पर उसे पढ़ लेता हूँ। यदि मैं जल्दी में पढ़ने वालों में से होता तो सिर्फ़ "अच्छी कविता" कहकर आपको भी निबटा देता, किंतु मैंने आपके लिये संवाद की गुंजाईश बनायी है। और हाँ यहाँ मैं अपनी टिप्पणी का फ़ौलो अप भी लगाकर रखता हूँ ताकि संवाद पूरा हो सके। इसीलिये मैं अपनी प्रतिक्रिया लेकर हाज़िर भी हूँ।
शायद आप कुछ कहना चाहेंगे।
शुभम।

रवीन्द्र दास said...

bhai mahen,
apne kaha, use n dushyant-priya hone ki akanxa honi chahiye n dushyant ki vidhava.yaane yah aapka paksh hai.thik? to aap hi kahiye kavita aapki iccha-rekha se baahar hai kahan!aur doosari baat,ham kaviyon ka kam sthitiyon ko samasya men anuvad karne ka hai n ki vastavikta ko nazarandaz karne ka.
swati ne apna commena vapas le liya yah unki pratikriya hai.aap bhi lagbhag roshh men hain. kya hai yah? sirf achchha kaha jay. sabhi dev-mudra apnaae baithe hain. aap ya main kuchh bolenge to awaz to door tak jayegi.khair!
yadi aap inkar karte hain ki aisi shakuntlayen nahin hain fir to kavita vyarth hai...
baaten hoti rahengi.aap naraz n hoven,lekin hai n mazedar baat ki swati ne apna comment vapas le liya

महेन said...

रविन्द्र बंधु,
मैं बहुत कम ब्लोग्स पढ़ता हूँ और टिप्पणी तो उससे भी कम देता हूँ। मेरे व्यस्त जीवन में इतना समय नहीं है कि किसी के कचरे पर मात्र इसलिये टिप्पणी करूँ कि मुझे भी टिप्पणिंयों का च्यवनप्राश मिले; इसीलिये देव-मुद्रा अपनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती कभी और वास्तव में इच्छा होती है कि पता लगे कि कहाँ कमी है रचना में किंतु कोई इस पचरे में नहीं पड़ना चाहता, सब "देव-मुद्रा" अपनाकर टिप्पणी करते हैं। किंतु यदि मुझे पोस्ट अच्छा लगता है, फ़िर चाहे मतभेद, असहमति हो, तो भी टिप्पणी करने का मन होता है और लेखक की प्रतिकिया जानने का मन करता है। आपका ब्लोग ऐसा ही एक ब्लोग है। मेरा रोष मात्र आपकी मुझपर की गई टिप्पणी पर था, आपकी रचना पर नहीं।
जब मैं कहता हूँ कि कविता अच्छी है तो पूरी ज़िम्मेदारी से कहता हूँ और पूरी ज़िम्मेदारी से उसकी आलोचना/समालोचना करता हूँ। निश्चिंत रहें कि मैं किसी और कि तरह पीछे नहीं हटूँगा। ;-)
स्त्री के बारे मैं मेरा रवैया कुछ ऐसा है कि मैं जानते हुए भी उसे कभी अबला नहीं कहूँगा मगर उसके द्वंद में मेरी पूरी सहभागिता रहेगी। सबसे पहले उसे अपने समकक्ष पूरी दृड़ता से खड़ा करना ज़रूरी है और उसके लिये उसे अबला के लेबल से बाहर निकालना ज़रूरी है। आपकी नसीहत उसके लिये है मगर मेरी फटकार समाज की ओर है। यही अंतर है आपकी और मेरी विचारधारा में। किंतु इससे क्या फ़र्क पड़ता है? बात तो दोनो उसके हित की ही कर रहे हैं। आपकी कविता किसी भी द्रष्टिकोण से व्यर्थ हो ही नहीं सकती और ऐसी शकुंतलाओं का अस्तित्व तो है ही।
पुनश्च: हिन्दी में लिखा कीजिये न टिप्पणी भी। रोमन पढ़ने में घोर कष्ट होता है।
शुभम।

राजीव तनेजा said...

कटु सत्य को उजागर करती प्रभावी रचना...