Sunday, August 10, 2008

मेरे उस पथ बंधू ने

मेरे उस पथ-बंधू ने क्या-क्या नहीं जतन किए
कि मान लिया जाय उसे
कपटी, चरित्रहीन और दगाबाज़
थक गया सरे तिकड़म लगाकर
पर विडंबना ही रही
कि उसे खल-नायक न माना गया.....
अपना दस्तूर होता है बाज़ार का
नियत नहीं है कीमत जहाँ
नहीं आ जाती है गुणवत्ता ख़ुद-ब-ख़ुद
कई एक सोपानों से गुजरकर बनता है हीरा
सदा के लिए ......
अथवा आसान नहीं होता बन जाना रावण
जिसकी निंदा करने वालों के मन में
साफ़-साफ़ झलकती है
रावण न हो पाने की घनीभूत पीडा ।
मेरे उस पथ-बंधू ने
किसी को भी न छोड़ा इस्तेमाल करने से
फ़िर भी विडंबना ही रही
कि उसे होशियार न माना गया !

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अपने मनोभावों को बखूबी अभिव्यक्त किया है।सुन्दर रचना है।

Bahadur Patel said...

achchhi rachana hai.