Friday, May 8, 2009

कभी तो कह दिया होता

कई सदियों तडपता रह गया था आस में तेरी
कि गर्दन को घुमा कर
इक नज़र हम पे भी डालोगे
उसी रस्ते की पुलिया पे,
जहाँ से तुम गुजरते थे ,
वहीं कोने में बैठा जोगडा
जो गीत गाता था
वही मैं था
खुदा ने भी सज़ा ही दी
कि तुम से दूर ही रखा
तुम्हारी बेखुदी ने हम से कीमत ही नही मांगी
न देखा ही कि क्योंकर एक बन्दा
आँख से आंसू बहाता है
कि गोया मैं तड़प कर मर गया
खामोश किस्सा कर
कि मेरी रूह ने सुन ली तेरे लब से
मेरी आहट
तभी से आज तक उस मौत पर
अफ़सोस ही आया
कभी तो कह दिया होता
कि मैं रहता हूँ उस दिल में
तो शायद आज मुझको मौत से शिकवा नहीं होता ।

4 comments:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

सुन्दर , भावपूर्ण रचना. बधाई.

रवीन्द्र दास said...

bahut bahut dhanyvad, Vandnaji!

Urmi said...

मुझे आपका ये रचना बेहद पसंद आया! इसी तरह लिखते रहिये और हम पड़ने का लुत्फ़ उठाएंगे!

रवीन्द्र दास said...

bahut khushi hoti hai jab koi rachna ki tarif karta hai.aapka vishesh dhanyvad, Urmi!