Tuesday, March 3, 2009

चेहरे में कोई सपना

तुम्हारे चेहरे में कोई सपना था
जिसे बरसो-बरस मैंने देखा किया
तुमने तो हर बार मेरा पागलपन कहा
पर, मैं बता दूँ साफ-साफ
कि कोई और सच होता नहीं इतना खुबसूरत
जिसे छू सकूँ
और जी सकूँ अपनी आजाद सांसों के साथ ...
ओ मेरे सपने का सच!
और क्या होता है प्यार?
ख्वाहिश के बगैर है जो जिंदगी
जहाँ न सपना है ,न तुम हो
उस जिन्दगी से भी मेरी तौबा है
जहाँ तुम्हारा चेहरा नहीं
मेरी साँसे, तुम्हारा चेहरा
और चेहरे से टपकता वो सपनो का नूर
मैं आज फ़ना हो जाऊँ
तो क़यामत तक खुशहाल रहूँगा
लेकिन,
वो इस तासीर को क्या खाक महसूस करेगा
जिसके नसीब में जन्नत के लिए भी किश्त भरना है
गोया कब आ जाए अफगान
वसूल करने अपना बकाया .......
क्यों नहीं ठहर जाता है वक्त
क्यों नहीं पत्थर हो जाता हूँ मैं
तुम्हारे चेहरे के आब से
भीगा देना मुझको
जो मैं हो गया पत्थर तुम्हारे प्यार में ।

4 comments:

रंजना said...

बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण इस रचना ने आनंदित कर दिया...

बहुत ही सुन्दर...ऐसे ही लिखते रहें..शुभकामनाये...

हरकीरत ' हीर' said...

क्यों नहीं ठहर जाता है वक्त
क्यों नहीं पत्थर हो जाता हूँ मैं
तुम्हारे चेहरे के आब से
भीगा देना मुझको
जो मैं हो गया पत्थर तुम्हारे प्यार में ।....

बहुत ही सुन्दर...!!

Urmi said...

वाह वाह क्या बात है! बहुत ही उन्दा लिखा है आपने !इसी तरह से लिखते रहिए !

रवीन्द्र दास said...

aap aaye khuda ki nemat hai
kabhi khud ko, kabhi ghar ko dekhte hain!