Wednesday, April 22, 2009

सरकार तुम्हारी आंखों में

सरकार तुम्हारी आंखों में
कोई गहरा एक समंदर है
नीला नीला सा
छलका सा ।
गर खफा न हो तो पूछ भी लूँ
एक बूंद
जरा मैं भी चख लूँ
शायद जी जाऊँ और तनिक
अमरित के कतरे को चख कर।
सरकार तुम्हारी आंखों का मैं दीवाना
है मझे पता
गुस्ताखी है
पर सब्र नहीं मैं कर सकता
सरकार तुम्हारी आँखें हैं
या कोई जादू का दरिया
आबे-हयात के किस्से तो सुनता आया हूँ बचपन से
सरकार तुम्हारी आंखों से
आबे-हयात का सोता ही है फूट पड़ा
मैं जी जाऊँ , मैं जी पाऊं
इक बार इजाजत दे दो बस
सरकार तुम्हारी आंखों में मैं डूब सकूँ
सरकार तुम्हारी आंखों में
सरकार .............. ।

3 comments:

हरकीरत ' हीर' said...

गर खफा न हो तो पूछ भी लूँ
एक बूंद
जरा मैं चख भी लूँ
शायद जी जून और तनिक ...

वाह...वाह... क्या बात कही है....!
रविन्द्र जी बहुत सुन्दर......!!

Urmi said...

दरअसल मैं अपनी शायरी में अकेलापन या उदासी का झलक नहीं लाना चाहती हूँ पर lइखने के वक्त आ जाता है इसका मतलब ये नहीं के मैं ज़िन्दगी में बहुत अकेली हूँ !
मुझे आपका ये ब्लॉग बेहद पसंद आया! बहुत ही सुंदर कविता लिखा है आपने !

admin said...

आपकी नई कविता में भी छंद सा रिदम है। इस सुंदर सी कविता के लिए बधाई।
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सावधान हो जाइये
कार्ल फ्रेडरिक गॉस