Friday, September 11, 2009

साँसों की रात थी वह

इतनी नजदीकियों के बावजूद नहीं हो पा रहा था यकीन
कि हम साथ हैं,
गोकि यह भी मालूम न था
कि साथ होना कहते किसे हैं ?
न कोई सवाल था
और न कोई जवाब ।
बस साँसें थी
दहकती सी , बहकती सी - भागती बदहवास
आँखें भूल चुकी थी देखना
कान सुनना ..........
सारी ताकत समा गई थी साँसों में
याद करो तुम भी
साँसों की रात थी वह।

बेशक बीत गया अरसा
गुजर गया एक जमाना
फिर भी, ओ मेरे तुम !
एक बार फिर मुझे उस रात में ले चलो
वह रात ! सचमुच,
साँसों की रात थी वह।

1 comment:

Shyam Bihari Shyamal said...

सांसों की रात... चुप्पियों की लिपि में बात ही बात... ऐसी कि वाह... क्‍या बात...