Tuesday, May 27, 2008

आओ हम तुम खेल खेलें

आओ हम तुम खेल खेलें
जो मर्जी हो तुम वह बोलो
जो मर्जी हो हम समझेंगे
रोएंगे या गाएँगे
या हंस हंस कर चुप जाएँगे
तुम चाहो तो छू सकते हो
तन को ..मन को ...जो मर्जी हो
लेकिन कोई भी कुछ पूछे
समझो खेल ख़त्म हो आया
आओ खेलें ऐसा खेल

1 comment:

महेन said...

यह मेरा सलीका बनेगा कभी सोचा था कभी… जितना अव्यावहारिक विचार, उतनी ही सुंदर कविता। Good things come in small packages.
शुभम्।