आओ हम तुम खेल खेलें
जो मर्जी हो तुम वह बोलो
जो मर्जी हो हम समझेंगे
रोएंगे या गाएँगे
या हंस हंस कर चुप जाएँगे
तुम चाहो तो छू सकते हो
तन को ..मन को ...जो मर्जी हो
लेकिन कोई भी कुछ पूछे
समझो खेल ख़त्म हो आया
आओ खेलें ऐसा खेल
जो मर्जी हो तुम वह बोलो
जो मर्जी हो हम समझेंगे
रोएंगे या गाएँगे
या हंस हंस कर चुप जाएँगे
तुम चाहो तो छू सकते हो
तन को ..मन को ...जो मर्जी हो
लेकिन कोई भी कुछ पूछे
समझो खेल ख़त्म हो आया
आओ खेलें ऐसा खेल
1 comment:
यह मेरा सलीका बनेगा कभी सोचा था कभी… जितना अव्यावहारिक विचार, उतनी ही सुंदर कविता। Good things come in small packages.
शुभम्।
Post a Comment