एक
वे दोनों
वे दोनों
वे जो अपने अपकृत्य का
नाम दे रहे हैं परिवर्तन
और वे जो परिवर्तन को
कह रहे है कुकृत्य
दोनों के साथ है कुछ लोग
मचा हुआ है
घमासान उनमें
उछल रही हैं बदजुबानियाँ
उन दोनों ने थाम ली है
वक्त के घोड़े की लगाम
हतप्रभ है जनता
और कहीं ऊपर देख रही है
आस लगाए
इतिहास विधाता की ओर
बदल रहा है
बेबस वक्त अजनबी शक्ल में
दो
और इसी दम पर लगा दी थी बोली कि चाँद मेरा हुआ जब खोला ढक्कन, हटाया पर्दा तो आज तलक मुँह छिपाते फिर रहा हूँ पुराने मुहावरों और जड हो चुकी कहावतों से निर्देशित मैं पहले भी हो चुका हूँ शर्मसार कई कई बार पर, हर बार घर के दरवाजे तक पहुँचा सच रुग्न निकला या काला-मुँह राक्षस और परंपरा की बलवती धारा उसे देवत्व से सुरक्षित करती रही हर बार, बार बार जल्दी में मत समझ लेना कि काले चांद का मतलब अमावस हो जाता है न, गोकि काले चांद से निकलती है काली रौशनी जिसमें काला सच चमकता है सोने जैसा बहुत बडी एक अदृश्य अलमारी है मेरे पास भी जिसमें मैंने भी संजोए हैं कई रंगों और वर्णों के रुपहले सच सो, सुनो ध्यान से कि काली रौशनी की परछाई होती है झक सफ़ेद और एकालाप की मानिंद नीरस होता है उसके हास-रुदन का व्याकरण भी |
तीन
सिर्फ़ आस पास की बहकी और बहशी बातें सुरूर दिलाती हों यह मुमकिन है मगर समय को अनसुना करने वाले के साथ कभी न्याय नहीं करता है इतिहास विधाता एक समय ही है जो दोहराता नहीं है अपने को न अपनी बात के उच्चारण को स्पष्ट करता है न रचता है कोई दस्तावेज़ और तो और वह इतना महीन वार करता है कि हमें महसूस करने का एक पल तक नहीं देता लेकिन समय है वह हमारी सोच में भी और हमारी सोच के बाहर भी और हम एक दूसरे की बदसूरत निहारने में बेहाल और साफ़ कहें तो निढाल पडे हैं किसी कमरे में गोल बनाकर बैठे से जैसे तुम मेरी बातों को अनसुना कर रहो मुमकिन है कि कर रहे होगे समय के बयान को भी नज़र-अन्दाज़ कृतघ्नता की घुट्टी हम सबने अकेले अकेले पी तो है ही समय तो आता नहीं किसी हाथ पकडने खेलो, खाओ, आंखों से गाओ, दिल से बजाओ पर एक कवि फिर भी यह कहेगा जरूर कि सुनो समय क्या कुछ कहता है इसके लिए इतना तो करना होगा कि निकलना होगा अपने सुरक्षित खोल से |
सिर्फ़ मिट्टी नहीं भले ही वह सब कुछ सहती है और बस चुप रहती है यह किसी गंगा माँ से अधिक पवित्र है उससे कहीं अधिक उदात्त उसका चरित्र है जो जमाने का पाप सोख लेती है और बदले में देती है जीवनदायी अंकुर |