जुबान से जुबान करती है बात
यह जानकर अचरज नहीं होता
आँखों-आँखों में भी हो जाया करती हैं बातें
ऐसा भी कहा जाता है सदियों से
लेकिन नहीं हो पाती है तृप्ति
इन माध्यमों से करके बातें
बाते चाहे कितनी भी लम्बी और गहरी क्यों न हो
जब बातें करती है
देह से देह
और जब फूट पड़ता सोता स्नेह का
उस मसृण स्पर्श से
हो उठता है अन्तरंग सराबोर
आँखों में छा जाता है इन्द्रधनुषी खुमार
कि लगने लगती है मौत भी झूठी
क्षण में समा जाता है जीवन का आनन-फानन
करने लगता है मानुष
खुद से ही प्यार
तब, जब करती है बातें देह से देह
हाय रे स्नेह !
जीवन इतना छोटा क्यों है!
यह जानकर अचरज नहीं होता
आँखों-आँखों में भी हो जाया करती हैं बातें
ऐसा भी कहा जाता है सदियों से
लेकिन नहीं हो पाती है तृप्ति
इन माध्यमों से करके बातें
बाते चाहे कितनी भी लम्बी और गहरी क्यों न हो
जब बातें करती है
देह से देह
और जब फूट पड़ता सोता स्नेह का
उस मसृण स्पर्श से
हो उठता है अन्तरंग सराबोर
आँखों में छा जाता है इन्द्रधनुषी खुमार
कि लगने लगती है मौत भी झूठी
क्षण में समा जाता है जीवन का आनन-फानन
करने लगता है मानुष
खुद से ही प्यार
तब, जब करती है बातें देह से देह
हाय रे स्नेह !
जीवन इतना छोटा क्यों है!
1 comment:
सही कहा आपने ,देह की अपनी ही भाषा होती है । बहुत सुन्दर शब्द हैं कविता में......"
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