Friday, June 13, 2008

खेल


खेल,
बहुत पहले था बच्चों के जिम्मे
खेल,
तब खेल जैसा था
हो जाते थे विश्रांत और निर्द्वन्द्व
देखकर बच्चों का खेलना.
होने लगे, धीरे-धीरे फिर,
बच्चे अपने और पराए
और इस तरह जन्म लिया दल ने
दल के साथ ही जन्मी थी
जीत और हार
पीछे से दलवाद भी.
अब, खेल
खेल न रहा, बन गया जरिया
जीत का
और हार का
जो देखते थे खेल पहले
अब देखने लगे
जीत और हार.
इस परिवर्तन का हासिल यह था
कि बीच में घुस गया व्यापार
ताकि जीते दल को ईनाम
मिले हारे को तिरस्कार.
शुरू शुरू में राजा था व्यापारी
फिर बना महकमा
सो, लेना क्या था महकमा को उत्तेजना से!
वह तो करता था कारोबार
प्रतिष्ठा का,
जबकि उस उत्तेजना से जुड़ा था-
राष्ट्रवाद,
उसी उत्तेजना से जुड़ा था बाज़ार
चूंकि सारे मस्ले जुड़े थे खेल से
इसलिए, राजनीति ने प्रश्रय दिया-
बाज़ार को.
फिर, बाज़ार में तो बेची और खरीदी जाती है
हर चीज़
सो, आज कल यानी अब
नहीं किया जाता है कोई भी फ़र्क
खेल, उत्तेजना अथवा राष्ट्रवाद में
और जो करता है ऐसा कुछ
उसे पिछड़ा
या विकास विरोधी कहकर किया जाता है-
मान-मर्दित.
इन दिनों,
खेल को लेकर
बड़ा ही व्यापक खेल चल रहा है.

4 comments:

Dr. Chandra Kumar Jain said...

इन दिनों,
खेल को लेकर
बड़ा ही व्यापक खेल चल रहा है.
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सही....लेकिन यह भी कि
यह कविता विकास
विरोधी कहने वालों के
मान-मर्दन के लिए भी काफी है.
गज़ब का वार-प्रहार करते हैं आप.
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डा.चंद्रकुमार जैन

महेन said...

बंधु कविता आप अच्छी लिखते हैं… आपकी शैली एक दिशा निर्धारित कर चुकी है। लगे रहिये।
शुभम्।

राजीव तनेजा said...

बहुत ही तीखी...पैनी एवं धारदार प्रतिक्रिया स्वरूप उपजी रचना..
बहुत-बहुत बधाई...

अपराजिता said...

यहाँ मीडिया ने जो रोले अदा किया है खेल को खिलवाड़ बनाने में उसको भी ध्यान रखना होगा....ये सच है कि मीडिया भी उसी बाज़ार का हिस्सा है जिसका आपने ज़िक्र किया...मुझे बहुत पसंद आई आपकी कविता....नागार्जुन भी राजनीतिक प्रपंचों पर तुरंत कविता कहते थे यानी जिस समय में हम जी रहे हैं कविता उसका साक्ष्य बनती है.....