Friday, July 9, 2010

छोटी सी कहानी कहनी थी

छोटी सी कहानी कहनी थी
कृपया सुन लें, यदि हर्ज़ न हो
मैं रहता था परिवार सहित
घर उनका था मैं
मैं भाडा देकर रहता था
थे वे गरीब , पर अकड़े से
थी एक वहां दुखियारी सी
दुबली, मैली , बेचारी थी
वह अक्सर पिटती रहती थी
हर सुबह चींख हम सुनते थे
क्या हुआ, सोचते गुनते थे
पर उतना पिटकर वह औरत
न रोती, ना ही थकती है
आखिर क्या थी वह मज़बूरी
हम समझ नहीं पाए आखिर
हम चले गए आजिज होकर
मैं आज अभी भी सोच रहा
उसकी मज़बूरी सोच रहा .....................

4 comments:

B L Karn said...

कविता की बिखरी हुई शैली का कारण शायद आपकी तथाकथित नासमझी एवं न रोने वाली ना थकने वाली बेचारी का यथार्थ है।

संगीता पुरी said...

मनुष्‍य कभी कभी परिस्थितियों से लाचार होता है !!

पवन धीमान said...

... मर्मस्पर्शी रचना

रवीन्द्र दास said...

mitro, is akavita-numa kavita par charcha karne ke liye bahut shukriya.
ab, kyonki yah vastvik anubhav hai. sthiti badi dusah thi, so maine likh diya.
yah kavita adhik ek marm-sparshi sthiti hai jisme kavyatmakta hai.
maaf kare.