Thursday, March 3, 2011

मैं क्यों तड़पा था .......... ?

मैं क्यों तड़पा था तुम्हारी बेबसी पर.....?

बहुत दिनों से सुलझा रहा हूँ

नहीं सुलझती है यह उलझन

कि मैं क्यों तड़पा था.

मेरी चेतना ...

फिर संवेदना

फिर अहसास ..........

फिर अनुभूति...

फिर ज्ञान....

फिर मेरा अस्तित्व !

मैं मुझसे ही इतना दूर

तो तुमसे ?

मेरा शरीर अलग है

तुम्हारे बदन से ....

अलग तो मेरी दुनिया भी है

तुम्हारी दुनिया से.

हाँ, हो सकते हैं हम दुनिया में

एक दूसरे की.......

लेकिन मैं और मेरे की दूरी पाटने को

यह ‘तू’ कहाँ से आया ?

मैंने कैसे इसे पाया ....!

तुम हँसते हो ओनी गरज से

मुझे क्यों भाएगी हंसी !

तुम तड़पोगे अपनी तड़प से

मुझे क्यों आएगा रोना !

मैं तुम में या तू मुझ में...... ?

मुमकिन है, मैं हार जाऊं

बुरा नहीं लगता हारना

पर कोई नकारेगा क्यों ?

नहीं भई, सकरेगा ही क्यों !

तुम अच्छे लगे,

जैसे... जैसे फूल...

तुमसे जुडना चाहा

जैसे हवा से.... नदी से.... आकाश से ...

तुम पर निर्भर हो गया

जैसे, जूतों पर....

मैं तुम्हें मिस करने लगा

जैसे, टीवी सीरियल...

मैं तुम्हें प्यार करने लगा

जैसे... जैसे.... जैसे.... माँ....

मैं फिर सोचूंगा

बहुत दिनों से सोच रहा हूँ

माँ से प्यार करता हूँ

कभी नहीं सोचा – क्यों करता हूँ.

शायद... शुरू होने से पहले से करता हूँ...

समझ में नहीं आया ?

मुझे भी नहीं आता है.

नहीं भी रहता है अलग अलग

इतिहासकार, तो भी, बाँट देता है काल को

जैसे, चारपाई के चार पाए

और तख्ते ....

और कील ...

और बढ़ई और उसके हथौड़े ...

समझना पड़ता है

या कहना पड़ता है –

समझ गया, कौन पड़े पचड़े में...

जैसे मेरा जीवन

शुरू होने से पहले शुरू हो गया

फिर भी शुरू हुआ था

मुझे नहीं पता

लेकिन बहुत लोगों को पता है

कि मैंने तुम्हें कब जाना

तड़पने के पहले या बाद में ?

मुझे नहीं याद है

( शायद ऐसा था भी नहीं )

पूछ लेना मगर मेरे हितैषी से

पूर्वापर समझा देगा साफ-साफ...

अभी जब,

टटोलकर देखा मैंने

नहीं थे...

कहीं भी नहीं थे तुम

मुझमें नहीं थे तुम ....

मैं भी नहीं था – शायद कहीं बह गया था ....

कौन.....?

किसमें....?

तुम गोरा चिट्टा शरीर या......

इसका मतलब मैं नहीं जानता तुमको ?

तुमको या अपने को ?

सोचूंगा भी तो क्या मिलेगा !

मैंने जाना है या मान लिया है अपने को ?

अपने को....

या तुमको ...?

तुम... मैं... मैं... तुम....

मैं यानी पता नहीं

तुम यानी तुम यानी.... शायद पता नहीं

नहीं.... नहीं..

मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता है

सोचना

क्या सोचना है यह भी सोचना पड़ता है..

नहीं सोचूंगा ... कभी नहीं सोचूंगा ...

मान लूँगा हर बार

मुझको भी.. और तुमको भी ...

किन्तु तुम तड़पो मत

मुझे दुःख होता है...

मुझे मेरा दुःख अच्छा नहीं लगता

अच्छा नहीं लगता है

बिना सोचे ही

तुम हँसो खिलखिलाओ

अच्छा लगता है

बहुत अच्छा लगता है

बिना सोचे ही.

2 comments:

राजीव तनेजा said...

आपकी रचनाएँ बहुत ऊंची एवं दार्शनिक सोच वाली होती हैं और मैं खुद को इस लायक नहीं समझता कि मैं उन पर अपनी कोई टिपण्णी या राय दे सकूँ ...इसलिए हर बार बिना टिपियाए ही वापिस चला जाता हूँ :-(

रवीन्द्र दास said...

अरे! राजीव भाई, समझ नहीं आया कि तारीफ कर रहे या निंदा ... वैसे दार्शनिक सोच भी इंसानी सोच ही है... जो इंसानी समझ के परे नहीं. धन्यवाद आपके आने का .