Sunday, April 29, 2012

पर दुःख दूर न हुए ..

लगा कि बाबूजी आ जाएंगे कलकत्ते से
हमारे सब दुःख
दूर हो जाएंगे
आए बाबू जी
आ गई हमारी जान में जान
मगन रहे थे कई दिनों तक
हम सब ... लेकिन
दूर न हुए दुःख
शामिल हो गए बाबूजी के दुःख भी उनमें
फिर लगा
कि आ जाएंगे अच्छे नंबर मेरे
हो जाएंगे सब दुःख दूर हमारे
मैं पढता रहा जी जान से
पूरा ध्यान रखा
माँ-बाबूजी ने .. बना लिया मेरी पढाई को
अपने जीवन का मकसद
किस्मत की बात
अच्छे नंबरों से पास हुआ
खुशियाँ मनीं .. पूजा-कीर्तन हुए
मगर दुःख दूर न हुए
जवान हो रही बहन
कुम्हलाया चेहरा पिता का
पैसों की किल्लत
माँ के जोडों में दर्द .. हे भगवान !
फिर लगा
लग जाए मेरी नौकरी
कमाने लगूँ मैं
कर दूँ दूर सारे दुःखों को
भर दूँ खुशहाली इनकी जिन्दगी में
बस लग जाए नौकरी एक अच्छी सी
मेहनत का नतीजा
माँ-बाबूजी का आशीर्वाद .. लग गई नौकरी
हो गई अच्छी तनख्वाह .. रुतवा
और इज्जत अलग से
माँ-बाबूजी का बेटा अफ़सर हो गया
बहन का भाई साहब
लौट आई ताजगी बुझे चेहरों पर
फूट पडी हिम्मत और ताकत की
नई कोंपलें ....
लेकिन कौन समझाए इन्हें
शहरी जीवन की पेचीदगी
कट जाती है सारी तनख्वाह
किस्तों की अदायगी में
क्या भेजूँ गाँव ..
क्या रखूँ जेब में !!



1 comment:

Onkar said...

wah, yathartha ka sundar chitran