Tuesday, May 29, 2012

सच बताऊँ तो

सच बताऊँ तो
कभी नहीं भूला कि मैंने कपडे पहने हैं
और संवादिता की दूरी कुछ कम होती जा रही है
जनसंख्या की वृद्धि अपनी रवानी पर है ..
पिछले छब्बीस महीनों से
कर रहा हूँ कोशिश लगातार
कि कर लूँ परिभाषित समाज को
लोगों में .. संबंधों में .. या फिर भाषा में ।

फ़िल्म अभिनेत्रियों के पास कुछ रहस्यमय अंग थे
निर्देशकों के पास कुछ भयास्पद आइडिया
राजनेताओं के पास कुछ कुंठाएँ थीं
वेश्याओं के पास दौलत
सबने मीना बाज़ार लगाया
कुछ जौहरी बुलबाए .. कुछ पत्थर-फ़रोश .. और कुछ सिपाही
पंडितों को गाली दी
मुल्लाओं ज़लील किया
और पादरी की हत्या की ...

पेशेवर बुद्धिजीवी हतप्रभ थे
कि उनके हाथ कुछ न आया
अकस्मात वे चींख उठे
देखो .. देखो मुझको, मैं नंगा हूँ
कुण्ठित, नीच , कमीना भी
और अकेला पड गया साहित्यिक .. किसी कोने में
भाषा, जाति , और राष्ट्र के संबंध बनाने
अपनी रातें .. और आँख की रौशनी बर्बाद करता रहा
गो कि उसके घर न तो कम्प्यूटर था
न टेलीफोन ही

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

सुन्दर प्रस्तुति।