Tuesday, July 24, 2012

शायद कल कुछ हो !


जब भी हार कर लौटता हूँ
जी करता है -
कोई सुन्दर सी कविता लिखूँ ..
जैसे, गाभिन अलसायी हिरण या यौवन से बेखबर मुग्धा
कभी भी अच्छा नहीं लगता
हार मानना, मर जाने की बात कोई और है

सच जानने और समझने का साहस
बडी मुश्किल से बटोर पाया था
सपने बाद में बुने
वे भी बेबुनियाद नहीं
आत्म देखता है .. व्यक्ति करता है .. मैं सिर्फ़ हारता हूँ
छोटा सा टुकडा बादल का
कोई नहीं मानता सूरज को , बरसात के दिन
मौसम सुहाना हो जाता है
पुरबैया बयार .. राग मल्हार ..
जरूरी काम से जाता हुआ
चुपचाप अटक जाता हूँ छाँही देख कर ...

और शाम को बिना चबाए निगल जाता हूँ
प्रश्नाकुल रोटियाँ,
नज़र बचाके
फिर डूब जाता हूँ
'असंभव' मेँहदीले हाथ और महावरी पैरों में
गोरा, चिकना, सुडौल, कोमल ....
अच्छा ल्गता है जीवित , गुदगुद
सिर्फ़ एक ग्लास पानी होता है
पी जाता हूँ .. और करता हूँ लगातार कोशिश
सो जाने की
इसी उम्मीद में .. शायद कल कुछ हो !

1 comment:

Arvind Mishra said...

ऐसे भी जीवन कट जाय तो क्या बात है :-)