Monday, January 7, 2013

षट्पदी कविता

१.
हर उस खास चेहरे को देखना नामुमकिन है
जिसने अपने आप को बनाया नहीं
परत दर परत
सजाया नहीं
गोबर से गणेश तक की यात्रा का इतिहास
समझा तो जा सकता है
पर अक्सर बेकाबू हो जाती है
उपले और कंडे की तकरीर
जिसे जिया जाना तो मंजूर है
लेकिन उसमें जिया जाना नहीं
कुछ लोग सालो साल लगाते है तरकीब
तब, बन पाती है चन्द दिनों की सरकार
और तख्त पलट देने की खुशी में
अक्सर, अपना ही थूक चाट कर दम तोड देती है
सत्ता और समय इनका भी है

२.
चाहे प्रेम हो या क्रान्ति
पौ फटने से पहले ही दम तोड देते हैं साक्षी
तडके जागने वाला कोई 'भाग्यवान'
हडप लेता है झंडी
और गाने लगता है -
रात के बिन भोगे करनामे
मैं और आप
दूर से चली आ रही भीड को जरूरी मान कर
अनचाहे शामिल हो जाते हैं
कि जैसे जन्मान्तर का प्रसंग हो

३.
मिथक से अनूदित इतिहास में अमरता है
किन्तु जीवित मनुष्य रहस्य है
क्योंकि रहस्य का वैसा कुछ अर्थ नहीं
जिसे जान लिया जाए
दूर कहीं सपेरा
अपनी सपेरन से अठखेल करता है
लोग घेर कर उसे
विभोर होकर देखते हैं
और चवन्नी-अठन्नी से मालामाल कर जाते हैं

४.
और कुछ वे
जो चोर हैं पोस्टर के
रातो-रात बदल देते हैं बूचडखाना
सुबह वह सर्व-धर्म-समभाव का कोई दफ़्तर होता है
लेकिन मनहूस लोग
बहुत दिनों तक
उसे कसाईघर ही कहते हैं
जीवन भर सुलझाता रहा था मारीच
अपनी पत्नियों के झगडे
जिसमें एक दानव जनती थी
तो दूसरी देवता
यह मानवीय कल्पना से अतीत है
महाप्रभु मारीच के वीर्य की शक्ति
तो भी, अपनी अपनी श्रद्धा है
कोई मुँह लगाता है, कोई हाथ तो कोई ..
लेकिन बुढापा सबको सालता है
निस्संतान या रंडुआ ..
कौन ? कब ? किसका हुआ ?
नहीं बदला मुहावरा
कितना गद-गद होता है जब
एक अजनबी भी मुस्कुराकर देखता है
जब भी अकेला हुआ
सारी दुनिया में फैला किया
अब एक सहेली ने घेर लिया मुझे
उसका भींच लेना मुझे प्रेम लगता है
और लोग कहते है
मालामाल हो गया
सचमुच, कमाल हो गया ..

५.
आँसू या मुस्कान
न जाने किन सिद्धान्तों में लुप्त हो गया
फिर भी
हर उघडा बदन नहीं वसूल पाता है वाज़िब कीमत
फिर भी इतिहास जीवित है
तो भी, इतिहास वर्धमान है
नर इतिहास , मादा इतिहास
आपस में करते हैं सहयोग
शिल्पों में तलाश कर उसके निशान
पेशेवर चित्रकार, पेशगी पाकर प्रायोजक से
बना ही डालता है एक वाज़िब तस्वीर

६.
हर चोचले नहीं होते खोखले
हर किताब नहीं बाईबिल
लेकिन नासमझ मानुस
क्या करे फ़र्क रुपिया और डालर में
जीभ से शिश्न तक जीता है
गोया, तो भी बन ही जाते हैं चेहरे खास
कोई धोतीवाला , तो कोई पतलून वाला
सूंघने पर पता चलता चलता है
दिमाग में गंध है गोबर की
और वहीं बैठा है गणेश
लेकिन मेरी आपकी समझ से क्या
इतिहास मांगता है पानी
अपनी बुझती बेजान सी निरीह आँखों से

1 comment:

Onkar said...

बहुत अर्थपूर्ण रचनाएँ