Wednesday, July 28, 2010

रच पाता एक भी कविता मुक्त

मैं एक कविता लिखता हूँ
सुघर और सुडौल संवेदनाओं से लबरेज
सजाता हूँ एक एक लफ्ज करीने से
और भरता हूँ अर्थ
उसी उत्साह और इत्मिनान से
जैसे भरता है रंग कोई चित्रकार
अपने बनाए चित्रों में
और लगाता हूँ दिठौना
कि नजर न लग जाये किसी की
हाय, कितनी नाजुक और खूबसूरत है मेरी कविता!
और विश्रांति के क्षणों में
ले आता हूँ आपके सामने
कि आप चहक कर करें तारीफ
कि भैया , तुम्हारी कविता तो षोडशी कामिनी से भी अधिक कमनीय है
और मैं प्रशंसा से गदगद
न मिला पाऊं खुद से भी नजर
पसीज उठे मेरा ऐकान्तिक मर्म .............
मैं
या मेरी तरह कोई
नहीं होने देना चाहता है स्वछंद कविताओं को
पहले तो महाकवियों ने बांधा निरीह कविताओं को
तरह तरह के छंदों में
जब कुछ आजाद खयाल कवियों की पहल से
मुक्त हुई छंदों से
बांध दी गई विचारों, वादों और विमर्शों की गुत्थियों में .......
हा ! हतभाग्य ! रच पाता एक भी कविता
मुक्त और स्वच्छंद
सच बताऊँ मित्रो !
मेरी इज्जत बढ़ जाती खुद की नजर में।

1 comment:

Kannan said...

Good blog is this.