Wednesday, October 13, 2010

करोड़पति बनाओ मुझे

स्मरण नहीं है
कि किस जन्म से घर के दरवाजे पर टकटकी लगाये
बैठे हैं पत्थर हुए से
अहल्या की तरह
कि आएगा कोई वनवासी
और अपनी गरज से ही सही
करेगा हमारा उद्धार।
यूँ कि देखा है हमने जनवाद की दुहाई से
फलता फूलता तो मसीहा है
फिर भी एक नशा सा बना रहता है
कि लड़ाई में नाम है हमारा
कभी जाति, कभी धर्म तो कभी लिंग, भाषा या क्षेत्र के नाम
और हम इकट्ठे हो-होकर गुदगुदाते रहते हैं
इसी गुदगुदी के नशे में छुपा है
लोकतंत्र का नुस्खा
कि तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा
हमने खून दिया
क्योंकि चाहिए थी आज़ादी जो हमें
बिना इस नशे के हलकान हुए जाते हैं हम
हमें कुछ दिलासा दो
कोई शक नहीं कि वह झूठा होगा
पर मन बहलेगा
हमसे भले ही छीन लो हमारा चैन
पर हमें सपने दो
बड़ी गुदगुदी है ख्वाबो-तसब्बुर में
हम तो बैठे ही हैं पलकें बिछाए
कि आओ, आकर हमें सपने दिखाओ
मुझे करोड़पति बनाओ ...........

3 comments:

साहित्यालोचन said...

कविता अच्छी लगी.
सपनो के हत्यारे ही सपनो का विभ्रम तैयार करते हैं और हम इस विभ्रम के आदी हो चुके हैं इस हद तक कि इसके बगैर जीना मुश्किल हो गया है.

रवीन्द्र दास said...

और मुझे अच्छा ही नहीं, बल्कि बहुत अच्छा लगा कि कविता को सही पाठ मिल गया. मैं व्यक्तिगत रूप से आभार करना चाहता हूँ सही पाठ तक पहुँचने के लिए. इधर कविताओं में जुमलों और सूत्र-वाक्यों का ऐसा चलन हो चला है कि पाठक-वर्ग बिना जुमलेबाजी के कविता को कविता की नजर से देखते ही नहीं. अस्मिता , शोषण , लिंगभेद, वर्णवाद के आलावा भी बहुत से पक्ष हैं जो काव्य-सर्जना का प्रस्थान-विन्दु है, उन्हें भी देखा जाना लाजिमी है. आपने जुमलाबाजी के इतर के पाठ को पकड़ा. धन्यवाद.

राजीव तनेजा said...

घूमती है दुनिया...घुमाने वाला चाहिए...