Saturday, October 16, 2010

फिर जलेगा रावण

फिर जलेगा रावण
नगर में उत्साह है, आबाल-वृद्ध-नारी-नर
देखने जाते हैं नजारा
कि अमुक चौराहे का रावण अच्छा था
लेकिन मेला यहाँ का।
चूँकि धर्मप्रधान देश है हमारा, इसलिए
पौराणिक कथाओं का सार्वजानिक प्रदर्शन
जरूरी है समय-समय पर
हजारों लाखों की सजावट, आतिशबाजियां
बना रहे , ताकि , आक्रोश रावण के प्रति
जनता में।
आप मानें , न मानें- खलनायक था रावण।
रावण जैसी जिन्दगी के आकांक्षी लोग
हर तिकड़म से चूककर
अपनी पराजय का प्रतिशोध लेता पुतलों से
आखिर में।
कौन नहीं चाहता वैभव!
कौन नहीं चाहता साम्राज्य !
कौन चाहेगा चौदह वर्षों का वनवास !
धर्म या विचारधारा - एक टोपी है
एक लबादा, जिसे पहने हुए महात्माजी या नेताजी
करते हैं सत्य पर बलाघात
जनता में बना रहे जोश
उसी पौराणिक रावण के प्रति आक्रोश
इसलिए हर साल लगता है मेला
जलता है रावण
और रावण है
कि साल भर में हो जाता है फिर तैयार
जलाओ मझे रामो!

2 comments:

Dr. Bhaskar said...

Jahan tak mujhe yaad hai is Raavan par aap pehle bhi ek kavita likha chuke hain. Sambhav ho to blog me post kar dijiye, main dono ko ek saath padhna chahta hun.

रवीन्द्र दास said...

यही वह कविता है, जो अक्षरपर्व, मार्च,२००६ में प्रकाशित हुई थी. रावण इतना प्रिय और लोकप्रिय चरित्र है कि उसपर बार-बार कविता कैसे लिखा जा सकता है.