Wednesday, October 20, 2010

रिश्तों के बियावान में

मैं एक मनुष्य होने की वज़ह से सामाजिक प्राणी हूँ
नागरिक हूँ ,
सुशिक्षित व्यक्ति, जिसे सभ्य कहा जा सकता है।
सामने- पीछे,
मेरी निंदा , प्रशंसा , उपहास, वगैरह बनाया जाता है।
मेरे रिश्ते बहुत दूर दूर तक हैं
इसका मतलब कि दो-चार-दस लोग मुझे जानते हैं
और यहीं पर मैं धंस जाता हूँ
अपने ही बुने जाल में फंस जाता हूँ
जो नहीं होता सामाजिक
नहीं होती उलझनें रिश्तों की
नहीं होती उम्मीदें
कि करेगा कोई समर्थन , देगा सहारा
मैं खुद करता प्रयास, मसलन, शिकार
और खाता खुद
और अपने आश्रितों को
या फिर तड़प-तड़प कर मर जाता मैं
मेरे आश्रित भी
बहुत सुखकर है मनुष्य होना
रिश्तों के बंधन में बड़ा ही राग होता है
इसे ही तो कवि- मनीषियों ने तो कहा है प्रेम
मगर कोई कोई होता है अभागा
जो छूट जाता है अकेला
रिश्तों के बियावान में
तब उसे सालता है मनुष्य होना
कि इतनी भी त्रासद होती होगी रिश्तों की पीड़ा
रिश्तों की बेरुखी का मारा मनुष्य
कुछ उस पक्षि-शावक सा हो जाता है
जो अपने काफिले से बिछड़ कर
पल-पल आतंक को जीता तो रहता है
लेकिन कुछ कर नहीं सकता

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