Thursday, February 3, 2011

औकात में हूँ, मजा आ गया

उसी दिन से कहना
उसी दिन से सुनना
शुरू हो गया था
कहाँ तक चलेगा
किसे क्या पता था
शिकायत का मजमा
तभी लग चुका था
कि लफ्जों में मेरी
सडन है पुरानी
वही गोल चक्कर की ठहरी हवाएं
बताती वही है जो पहली कहानी
कि सपनों में रूमानियत भी लिए ही
चले जा रहे थे
भगे जा रहे थे
कि संसद की सड़कें
कि चकलों की गलियां
कि दौलत का जमघट
कि शौहरत का जलवा
चले जा रहे थे
थी सपनों की दुनिया
कहूँगा किसे
कौन समझेगा मेरी
जो अपनी समझ पे ही झल्ला रहे हैं
कि चिल्ला रहे हैं
मुनासिब से ज्यादा
मगर इसका ईनाम भी पा रहे हैं
यही एक दावा सभी कर सके है
जो मैं कर रहा हूँ
जो तुम कर रहे हो
गलत तो गलत है
सही तो सही है
कहो- क्या कही है
समंदर का पानी तो खारा तो बहुत है
कभी सात पुश्तों ने देखा न अब तक
समंदर का पानी मगर फ़र्ज़ कीजै
कि खारा बहुत है
नई क्या नई है
कि किससे लिखाऊं कि सचमुच नई है
य' आवाज़ मेरी चुराई नहीं है
न गदहों की रेंकें
न गीदड़ की वां-वां
यही खास बोली है मेरी जुबानी
मगर रस्मे फ़तवा शुरू जब हुआ हो
मुझे तो किसी ने बताया नहीं तक
हरामी मुहाफ़िज़ रहेंगे तभी तो
ये डवलपड नेशन की शौहरत मिलेगी
कि अस्मत के पीछे जो दौड़ा करेंगे
तो ठेंगा के हक़दार साबुत बचेंगे
मगर प्रेम चोरी की पहली तमन्ना
जुबां बंद सांसों से सेंका करेंगे
कि पाशव के भी क्या कुछ पड़ा है
यही खोजते आज गुमसुम खड़े हैं
मगर दुम खड़ी हैं
चलो भाग जाएं
कि दुनिया नहीं है मुहब्बत के काबिल
किसे चाहिए क्या
नहीं कोई मुद्दा
है मुद्दा अभी तक मिला है किसे क्या
कि मजदूर बनना गंवारा नहीं है
मगर उनके आंसू बहाते हैं बेहद
कि सचमुच मुखातिब सवाल हो गया है
कि इंसानियत कोई रिश्ता यहाँ है
मिला है बहुत कुछ
मिलेगा बहुत कुछ
किसे चाहिए
कौन देगा उसे
एक कुंठा हमारी तुम्हारी या उसकी
पिघलकर बहेगी
तो कविता बनेगी
तुम्हें भी रुचेगी
उसे भी पचेगी
खास लम्बा हुआ था बहस का सिला
इसमें मैं तो नहीं था कहीं भी चला
मैं उनकी निगाहों को तकता रहा
आ गयी
फिर गई
और आती रही
और जाती रही
मैं उनींदी की चादर में लिपटा हुआ
उनको देखा कि उनके हैं आशिक बड़े
मैं सिसकता लुढकता
यहाँ आ गया
जब यहाँ आ गया
तो यहाँ आ गया
आज औकात में हूँ मजा आ गया।

1 comment:

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर अभिब्यक्ति| धन्यवाद|