Saturday, April 30, 2011

लिथड़ा रहता हूँ आकाँक्षाओं से

वैसे तो हर वक्त लिथड़ा रहता हूँ मैं आकाँक्षाओं से

निगलता रहता हूँ मक्खियाँ .... देखकर भी

लेकिन मैं नदी नहीं हूँ

न ही दरख्त

मैं मनुष्य हूँ ...

बिना इस बात की खबर रखे

कि क्या होता है मनुष्य होना

होना नहीं था मेरे वश में

बस बनाये रखने की जद्दोजहद में

आ मिला था तुम से

तुम नहीं थे कोई खास

प्रेम मेरी ज़रूरत थी

इसका शाश्वत भाव नहीं है सत्य

बस आकांक्षाओं का विस्तार भर है

नहीं समझ पाता हूँ उन कविताओं को

जहाँ घोषणाएँ है प्रेम के उदात्त की

न तो मैं कोई घर था

न ही पाठशाला

था तो बस ज़रूरतों का पुलिंदा

एक अपूर्ण और बेतरतीब कहानी

कुछ वैसा ही ....

जो हर बार शीशे में अपनी शक्ल देख

होता रहता है असंतुष्ट

और भरता रहता है गलतफहमियों की खुराक

नहीं जानता हूँ मैं

कि क्या होता है मनुष्य होना

फिर भी प्यार करता हूँ मैं

लेकिन मत होना लापरवाह मेरी ओर से

खत्म नहीं हो गई है मेरी आकांक्षाएं.....

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