कहता तो था पहले भी
और आज भी कहता हूँ कि कहीं बचा है प्यार ....
अभी अभी जब लौटा हूँ मैं
सपनों से ....
अभिलाषाओं की तलैया में खिले थे कई कमल
तिर रहे थे
यूँ कि अरमानों के निकल आये हों पंख
तुम वहीं कहीं सुनहरी मछली सी
हीरे की कनी सी आँखें चमका कर
दे रही थी मोहलत कि मैं तुम्हे प्यार करूँ....
और जब खुल गई है मेरी आँखें
तुम परीकथा की राजकुमारी सी जादू की छड़ी लिये
मुझे कर देना चाहती हो निहाल ...
कुछ जरूरतें... कुछ बेबसी ...
जरूर सुगबुगाती है खलनायिकाओं की तरह
पर हो जाती हैं अचेत
तुम्हारी पलकों के झटके से....
और मैं ताबडतोड करने लगता हूँ जुगत
कि बचा रहूँ मैं
और बचाए रखूँ तुम्हें अरमानों की तरह
तुम और मैं ....
रच ही लेंगे सच का संसार
क्योंकि बचा है प्यार ....
यह कोई बंद डिब्बे की मिठाई नहीं
जो सड़ जाएगा गर्मी से
यह तो हमारा प्यार है...
दिख जाएगा तुम्हें भी
जब भी जाओगे सपनों के रास्ते उस तलैया पर ...
मत सोचना तुम मुझे एक फूल
सोचना तो ....
एक इमारत , एक वसीयत या एक किताब
या कोई नया रास्ता
सपनों में भी सुकून देता है आईना
इसी से होकर निकलता है प्यार .
1 comment:
बहुत सुन्दर रचना!
प्यार की परिभाषा बहुत अच्छी लगी!
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