उम्र जिसमें क़ैद थी , इक आईना था |
शक्ल उसमें देखना , लेकिन मना था ||
हमने उनसे पेशकश की जिंदगी की |
चल पड़े हंसकर महज़ मैं बुत बना था ||
फलसफे की आड़ मैंने ली तभी से |
यूँ कहें कि शौक से गर्दिशजदा था ||
था खुदा की बानगी मतलब न मेरा |
नज़्म मेरे इल्म के हाथों फना था ||
वक्त की मजलिस निखालिश फारसी है |
जान लेना जुर्म भी इक बेवजा था ||
2 comments:
वाह ! मजा आ गया |
बेहतरीन प्रस्तुति
शुक्रिया ... बहुत शुक्रिया भाई अवनीश जी..
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