Sunday, May 15, 2011

उम्र जिसमें क़ैद थी , इक आईना था (ग़ज़ल)

उम्र जिसमें क़ैद थी , इक आईना था |

शक्ल उसमें देखना , लेकिन मना था ||

हमने उनसे पेशकश की जिंदगी की |

चल पड़े हंसकर महज़ मैं बुत बना था ||

फलसफे की आड़ मैंने ली तभी से |

यूँ कहें कि शौक से गर्दिशजदा था ||

था खुदा की बानगी मतलब न मेरा |

नज़्म मेरे इल्म के हाथों फना था ||

वक्त की मजलिस निखालिश फारसी है |

जान लेना जुर्म भी इक बेवजा था ||


2 comments:

अवनीश सिंह said...

वाह ! मजा आ गया |
बेहतरीन प्रस्तुति

रवीन्द्र दास said...

शुक्रिया ... बहुत शुक्रिया भाई अवनीश जी..