Friday, May 27, 2011

मैं कविता नहीं लिख रही

मैं साफ कर दूँ कि मैं कविता नहीं लिख रही

क्योंकि वक्त कविता लिखने का नहीं

शीशे में अपनी शक्ल देखने का है ....

कील ... मुँहासे... झुर्रियाँ...

क्रीम ...पाउडर ...और कई सारी सामग्री ...

सबका इस्तेमाल किया

बहुत दिनों तक मेरे चाहने वाले .. नहीं परख पाए

मेरे चेहरे की बदसूरती ..

चलता रहा ... निकलता रहा था मेरा धंधा ...

चाहने वाले होते हैं थोड़े बेवकूफ...

मेरी ढलती जवानी ... और मेकअप से छुपाया सच ...

मेरी हमपेशा सहेलियों ने भी शुरू कर दिया था

यहीं तरकीब...

लेकिन कबतक ?

जवानी के खरीदार ..... मुड़ने लगे उन गलियों की ओर

जहाँ से आ रही थी यौवन की मदमाती खुशबू...

पसरा हुआ हाट....

कबतक बहला पाता मेरा सेल्समैन ...

अचानक बंद हो गया ...

जां-निसारों का आना...

करना होगा तप... साधना ...

शायद लौट आये जवानी ....

ईमानदारी में कुछ हासिल होगा...

हो पाऊं फिर से एकबार उनके काबिल

किसी और नजरिये से ही सही....


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