Monday, May 23, 2011

रखना इस किताब को संभाल कर

चलते चलते ... जब ठहर जाएँगे कदम
वहीं एक चश्मा होगा
और चश्मे में तैरते मेरे सपने
मेरी आँखों की तरह
वो भी तुम्हें आवाज़ देगा ...
मगर तुम ठहरना मत
झटके से उठाना कदम और बढ़ जाना आगे
और अपनी डायरी के उस हर हर्फ़ पर पोत देना सियाही
जिसपर भी मेरी गंध हो
जल्दी से निकल भागना उस सपने से भी
जिसमें मेरी याद हो
जला देना तेजाब से उस हर फूल-पत्ते को
जिसे हमदोनों ने प्यार से सींचा है
दफ्न कर देना उन मुस्कुराहटों को जो कभी खिल आई थी मेरे आगोश में
हँसकर टाल देना एक सुने लतीफे की तरह
जो कभी मेरी कविता दिखाई दे
गोया तुम स्त्री हो ... और मैं मर्द
व्याकरण के हिसाब से गलती तो मेरी ही निकलती है
रखना इस किताब को संभाल कर
हो सकता है मकान फिर बदलना हो ..

2 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

गहन भाव लिए अच्छी रचना

राजीव तनेजा said...

भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति....