नदी ने कहा पहाड़ से
लो ... मुक्त हुई मैं
अब बनाउंगी खुद अपना रास्ता
और चलूंगी अपनी राह
अपनी चाह...
पहाड़ अपनी जगह खड़ा मुस्कुराता रहा लाचारी से
और कलकल करती
बलखाती .. लडखडाती नदी चल पड़ी
एक खुशगवार सपने की तरह बीत गयी
पहाड़ी ढलान
समुद्र को प्रेमी जान
जैसे ही बढ़ी नदी उसकी ओर
पलक झपकते ही लील गया समुद्र
नदी का वजूद ....
2 comments:
यह वार्तालाप चित्र बहुत बढ़िया लगा!
सही कहा शास्त्रीजी आपने... वार्तालाप-चित्र ... धन्यवाद
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