Tuesday, May 31, 2011

लहू से सींचना ही होगा

कुछ लोग,

जब अपने वज़ूद का

नाज़ायज़ हर्ज़ाना वसूलने लगें

अपने होने को

वरदान समझने लगें....

तो कहीं तबाही होती है...

हो सकता है

बचें रहे आप, आपका घर, आपके लोग...

यह भी हो सकता है

आप इसे मानें ही नहीं तबाही

और निरपेक्ष दार्शनिक की भाँति

आप उच्च स्वर में उच्चार करें-

कि यह तो अवश्यंभावी था...

अनिवार्य था...

आप के इस मुखर स्वर से सहम जाए

आपके सम्पर्क के लोग ....

मिल जा सकता है

इस अकाल उद्घोषणा के एवज़ में

राज पण्डित होने का परम सौभाग्य ....

वे अपने वज़ूद का नाज़ायज़ हर्ज़ाना वसूल करने वाले लोग

आपकी शरण में आ जाए,

इस पर कोई शक नहीं...

लेकिन तबाही तो आएगी

और आपको भी अपने लहू से सींचना ही होगा

अपने विष वृक्ष को

नहीं देता है विष वृक्ष कभी भी अमृत फल

स्वायत्त-निषेध का घोडा

अपनी ढाई घर की चाल नहीं चल पाता है

एक बार से अधिक...

सौजन्य आपका... निर्णय आपका

गति का तीसरा नियम बडा ही निर्मम और संग-दिल है


1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!