Sunday, September 11, 2011

नई दुनिया बनाएं

आओ.. हम तुम

नई दुनिया बनाएं

कुछ पुराने हर्फों को मिटाएँ

तुम उन्हें मिटाओ , जो मुझे पसंद नहीं

मैं उन्हें मिटाऊँ , जो तुम्हें खटकते हों

इतना ही बस चलता है कि

कोई अपनी डायरी का पन्ना

अपनी मर्जी से लिखे

वरना प्रकृति ... संसार या बाज़ार

किसने सुनी है मेरी पुकार

जब जब तुमने बारिश की इच्छा की

सिर्फ आंधी आई ....

और तुम डर गए

डरना नहीं था पसंद तुम्हे ...

सो मैंने मिटा दिया उस डरना क्रिया-पद को

और वहाँ कुछ लिखना था ...

सो मैंने अपनी मर्जी से

लिख दिया था प्यार

और तुम्हारे चेहरे पे आई सुर्खी से

जान गया था मैं

बदल गई है हमारी दुनिया

2 comments:

राजीव तनेजा said...

इस हाथ दे और उस हाथ ले...कुछ तुम मेरी सुनो...कुछ मैं तुम्हारी सुनूँ... समझौता तो जीवन के हर क्षेत्र में करना ही पड़ता है भले ही वो प्यार क्यों ना हो..

रवीन्द्र दास said...

राजीव जी ! शुक्रिया कि आपने कविता बडे ध्यान से पढी.... पर समझौता (?) कहना थोडा अन्याय जैसा नहीं है !