विशाल प्रशाल की उद्दीप्त दीवार पर
हे गुरुदेव रबीन्द्र !
मैंने तुम्हारा प्रखर चित्र देखा
गरिमामय भव्य छवि में तुम्हारी प्रदीप्त शिखाओं सी
किन्तु गहरी और विशाल आँखें देखीं
और क्षण भर को ठहर गया मेरा
चंचल चित्त भी
ओ गुरुदेव ! निश्चय ही दिव्य और अलौकिक दृष्टि है
तुम्हारी आँखों में
परन्तु अब मैं स्मरण में
तुम्हें देखता हुआ कामना करता हूँ हे महामानव !
तुम्हारे नेत्रों की ज्योति में
अतिशय अलौकिकता के साथ
किञ्चित लौकिकता भी होती अनुस्यूत
इस जगत का और उपकार ही होता
हे दिव्य पुरुष
तुम्हारी दृष्टि ने सत्य देखा
सुन्दर रचा
हम मरजीवा संसारी
शिव के अतिरिक्त नहीं पहचान पाते किसी और को
हे कवीन्द्र !
तुम सत्य के गायक थे
सुन्दर के चितेरे थे
मैं तुम्हें कोटिशः प्रणाम करता हूँ
1 comment:
अनन्य प्रेरणास्रोत,दिव्यतम गुरुदेव के लिए सदैव नत!
आभार।
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