Tuesday, March 12, 2013

प्रेम, कविता और प्रेम - कविता

प्रेम, कविता और प्रेम - कविता

कुछ कवि प्रेम कविता लिखते है
और कुछ नहीं लिखते प्रेम कविता
और कुछ
कभी कभी प्रेम कविता लिखते हैं
मैं एक कवि हूं
(प्रेम में कविता को और कविता को प्रेम में घुलाना चाहता हूं )

मुझे कविता से प्रेम है
और प्रेम कविता सी लगती है
जबकि कविता कविता है और प्रेम प्रेम
कोई समझाता है
कविता और प्रेम में संबन्ध हो तो सकता है
फिर भी बीच में नहीं पडना चाहिए मुझे

मुझसे
दोनों छूट जाते हैं
हो जाते हैं आवारा एक दूसरे को ढूंढते हुए
और फिर न प्रेम रहता है प्रेम
न कविता रहती है कविता
लेकिन मैं रहता हूं
इनसे अलग कहीं और, मसलन, पत्नी के संसार में
बच्चों के मनुहार में
मां-बाप-गुरुजन के सम्मान में
और तो और,
कविता और प्रेम के बिछडने की हूक में
मैं रहता ही हूं

सामाजिक दृष्टिवाले
मेरी स्थिति से, मेरी सत्ता से भी, इनकार करते हैं
वैसी कोई स्थिति गवारा नहीं इन्हें
जो शामिल न हो सामाजिक प्रक्रिया में
वह चाहे प्रेम हो या कविता
वे चाहें तो इनकार कर सकते हैं अकेले
पर मेरा अकेले का स्वीकार गवारा नहीं

जबकि मित्रो !
भूख, प्रेम या आनन्द का नहीं होता समाजीकरण
गोया हो सकता है बाज़ारीकरण
जहां कोई
कोई भी अपनी इन्द्रियों की हद में उद्विग्न हो
निढाल हो सकता है
या लहना सिंह की तरह
अपना ले सकता है महान मृत्यु

मेरा प्रेम
मेरी कविता
मेरी नींद ... मेरी ही है
तुम्हारा सामाजिक हृदय द्रवित हुआ
जानकर द्रवित हुआ, गदगद हुआ मैं
लेकिन रहे मेरे .. मेरे ही