मेरे सीने पे बड़ा बोझ है
कि जैसे उग आया है शहर सा कुछ
जहाँ बहती थी कोई नदी
नदी के आसपास था हर भरा जंगल
उस जंगल में नहीं था जंगली कुछ भी
बरसात में गिरी सड़ी पत्तियां भी
लगती थी खुशबूदार
फूलों, वसंतों और कोयल की बात का कहना ही क्या
नहीं था कुछ हाट-बाज़ार
रिश्ते सहज और स्वाभाविक थे
नदी के पानी की तरह
धीरे धीरे लोगों में जगी भूख
सुविधाओं की
उन्हें होने लगा रस्क उन जालिमों से
जिनके खिलाफ
ये गाते थे गाना ब्यालू के बाद
इसी रस्क ने बोया था शहर का बीज
इच्छाओं की नमीं .... जोश की तपिश ने
उगा दिया था छोटा सा वीरबा शहर का
कितना सुन्दर लगता था वह नन्हा पौधा
किसे पता था
कि इतना खूंखार और बदसूरत होगा बड़ा होकर
मेरे सीने पे उगा शहर !
कि जैसे उग आया है शहर सा कुछ
जहाँ बहती थी कोई नदी
नदी के आसपास था हर भरा जंगल
उस जंगल में नहीं था जंगली कुछ भी
बरसात में गिरी सड़ी पत्तियां भी
लगती थी खुशबूदार
फूलों, वसंतों और कोयल की बात का कहना ही क्या
नहीं था कुछ हाट-बाज़ार
रिश्ते सहज और स्वाभाविक थे
नदी के पानी की तरह
धीरे धीरे लोगों में जगी भूख
सुविधाओं की
उन्हें होने लगा रस्क उन जालिमों से
जिनके खिलाफ
ये गाते थे गाना ब्यालू के बाद
इसी रस्क ने बोया था शहर का बीज
इच्छाओं की नमीं .... जोश की तपिश ने
उगा दिया था छोटा सा वीरबा शहर का
कितना सुन्दर लगता था वह नन्हा पौधा
किसे पता था
कि इतना खूंखार और बदसूरत होगा बड़ा होकर
मेरे सीने पे उगा शहर !
4 comments:
shar ke ugane aur iske badsoorat hone ka bahut gahan vishleshan hai....gahre bhav liye hai aapki ye kavita....
बहुत सुन्दर रचना लिखी है आपने!
कविता जी को कविता भायी.. यह कवि को अच्छा लगा. धन्यवाद कविता.
और शास्त्री जी का आगमन ही महत्त्वपूर्ण है. धन्यवाद शास्त्री जी .
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