Sunday, March 20, 2011

मेरे सीने पे उगा शहर

मेरे सीने पे बड़ा बोझ है
कि जैसे उग आया है शहर सा कुछ
जहाँ बहती थी कोई नदी
नदी के आसपास था हर भरा जंगल
उस जंगल में नहीं था जंगली कुछ भी
बरसात में गिरी सड़ी पत्तियां भी
लगती थी खुशबूदार
फूलों, वसंतों और कोयल की बात का कहना ही क्या
नहीं था कुछ हाट-बाज़ार
रिश्ते सहज और स्वाभाविक थे
नदी के पानी की तरह
धीरे धीरे लोगों में जगी भूख
सुविधाओं की
उन्हें होने लगा रस्क उन जालिमों से
जिनके खिलाफ
ये गाते थे गाना ब्यालू के बाद
इसी रस्क ने बोया था शहर का बीज
इच्छाओं की नमीं .... जोश की तपिश ने
उगा दिया था छोटा सा वीरबा शहर का
कितना सुन्दर लगता था वह नन्हा पौधा
किसे पता था
कि इतना खूंखार और बदसूरत होगा बड़ा होकर
मेरे सीने पे उगा शहर !

4 comments:

kavita verma said...

shar ke ugane aur iske badsoorat hone ka bahut gahan vishleshan hai....gahre bhav liye hai aapki ye kavita....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर रचना लिखी है आपने!

रवीन्द्र दास said...

कविता जी को कविता भायी.. यह कवि को अच्छा लगा. धन्यवाद कविता.

रवीन्द्र दास said...

और शास्त्री जी का आगमन ही महत्त्वपूर्ण है. धन्यवाद शास्त्री जी .