Thursday, April 14, 2011

मैं लिखना चाहता हूँ

लिखना चाहता हूँ
कुछ ऐसा लिखना चाहता हूँ
जिसे पढते ही
तुम्हारी आँखों में आ जाए वही खुशी
जो आ जाती थी
गुडिया को देखकर .... तुम्हारे बचपन में
पर अब तो तुम्हारी आँखें भी नहीं हैं वैसी
निश्छल
या निर्द्वन्द्व
इनमें आ गया है एक संकोच
जिसे पार करने में
चुक गया था मेरा धैर्य
पहुंचा तो हूँ तुम तक
लेकिन अब भी हर बार करनी पड़ती है
एक तैयारी
कि जैसे कोई युद्ध है मेरे सामने
मैं लिखना चाहता हूँ
एक कविता
जिसे पढती हुई तुम्हें
देखना चाहता हूँ छुपकर
लेकिन साथ ही महसूस करना चाहता हूँ
सांसों की धीरे-धीरे बढती उष्णता को
और एक एक हर्फ़ में समाकर उतर आना चाहता हूँ
तुम्हारे अन्तस्तल में
क्या तुम्हारी सभ्यता ने
तुम्हें इतना निःसंग कर दिया
कि अब बोझ लगने लगा है
प्रेम भी
मेरी प्रेयसी से बदलकर
कब बन गई स्त्री
समझ न पाया मैं उन्मत्त
मैं लिखना चाहता हूँ
इस उम्मीद में
कि तुम इसे पढोगे सिर्फ कविता की तरह.

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