जेठ की दुपहरिया की धूप
मुझे अच्छी लगती है
इसलिए नहीं कि लोगों को बुरी लगती है
बल्कि इसलिए कि तुम्हारा चेहरा
तमतमाया और लाल होते हुए भी
शरमाता रहता है
फटकार के बाद नहीं देख पाता हूँ
सीधी नजर से
शायद सुन्दर चीजें नहीं सोचती हैं अपने लिए
अब संशय नहीं रहा उपेक्षा के लिए
लेकिन यह ओलम्पिक की दौड़ तो है नहीं
मेरे पतन की कोई जिम्मेवारी तुम्हारी नहीं
हलकी बूंदा-बांदी
या हल्का सा हवा का झोंका
मुझे सुखद लगता है
तुम्हें भी लगता होगा
सुनसान रास्ता
तुम में भय
और मुझमें आशा का संचार करता है
जब भी समाज से निकल कर अपने में आना
इसी रास्ते आना
चोर उचक्के भी पस्त हो गए होते हैं गर्मी से
सफेद धूप
सफेद खेत
नहीं होते निर्जीव हमारे संबंधों की तरह
जाग्रत और उतावले होते हैं
मोड़ पर प्याऊ के पास खड़ी बुढिया
पानी पीकर कुछ और जी लेती है
बिना सोचे कि जीने का क्या प्रयोजन है
नहीं बाज आते है
छोटे छोटे भिखारी बच्चे पैसा मांगने से
जेठ की दुपहरिया मुझे अच्छी लगती है
जब तुम
सहम सहम कर पीछे देखते हुए भागते रहते हो
और मैं
अगले कल की प्रतीक्षा करता रहता हूँ
2 comments:
"मोड़ पर प्याऊ के पास खड़ी बुढिया
पानी पीकर कुछ और जी लेती है
बिना सोचे कि जीने का क्या प्रयोजन है"...
बहुत से लोग यूँ ही जिए चले जा रहे हैं बिना किसी प्रयोजन के...
हाँ!..जब पैदा हुए होंगे तो उनके घरों में ज़रूर आयोजन हुआ होगा...
या फिर शायद मातम :-(
बहुत बढ़िया रचना!
Post a Comment