य' ज़िन्दगी है मेरी किसकी नज़र करूँ मैं ।
मंजिल न हम सफ़र है कैसे सफ़र करूँ मैं ॥
रद्दो-बदल हिफ़ाज़त, खुद की नहीं कभी की ।
बे-आम खासियत है, कैसे गुजर करूँ मैं ॥
जीने की आरज़ू है, औ' ख्वाबो-क्वाहिशें भी ।
खतरे वज़ूद पर हैं, कैसे वसर करूँ मैं ॥
मुझको खुदा से कोई नाराज़गी नहीं है ।
अरबों की भीड है फिर, कैसे असर करूँ मैं ॥
सच पूछिए तो मैं ही खुद से न रूबरू हूँ ।
अपने ये कशमकश फिर कैसे खबर करूँ मैं ॥
तालीम की किताबें बेवक्त बोलती हैं ।
लाचार हैसियत है, कैसे ज़िकर करूँ मैं ॥
No comments:
Post a Comment