Sunday, February 12, 2012

आइए! घासों को जमीन दें

पत्थर मे उगे घास की जड़ में भी
जरूर होती है
मिट्टी की परत
और जरूरी नर्मी
यह प्रत्यर्पण की संधि है
ऐसे नही टूटता है
जाति बोध
कि चन्द जुमलों पर स्याही डाल दी
और कहा लो
बदल गया
हजारों साल का जकड़ा समाज
अंधों को पकड़ा दी बन्दूक
और समता की खुशी में नाचने लगे
गमलों में उगाए
बोनसाई
बगीचे का पेड़ नहीं
नमूना है
बेसक, मर्जी से उसे इधर उधर कर
लेते हैं
बेवकूफ खुशी का दौर
लम्बा खिंच रहा है
आइए! घासों को जमीन दें
ताकि वह झेल सकें
सूखा व अतिवृष्टि का प्रकोप

1 comment:

Onkar said...

bahut gahrai hai aapki kavita mein