Tuesday, February 21, 2012

प्रेयसी का चालीस पार ...

चालीस पार स्त्रियों की प्रेम कविताओं में
चिकनाई की परत की तरह
पसर जाती है गिरस्ती
प्रेमी हो जाता है किला
ठोस हो जाती है स्नेह की तरलता
आँखें हो जाती है ठहरी नदी
एकान्त क्षण लील जाता है दायित्वबोध
जीवन हो जाता है यात्रा
चालीस पार स्त्रियाँ ... माँ की खोल में इतना समा जाती है
कि ढलकते आँचल का उसे पता ही न चलता
प्रेम तो समाया रहता है नस नस में..
वह उभरता है तब
जब प्रेमी कनखियों से झाँकता है इधर उधर
उस गुस्से में उबला हुआ नमक
सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने ही मुल्क में पैदा होता है
भरी हुई देहयष्टि की मंथर गति
नहीं .. नहीं अघाता है मन
और प्रेमी अपने प्रेम को संपूर्ण होते देख
चुप चुप ही ... जुडाता रहता है

1 comment:

Onkar said...

bahut sateek rachna