Tuesday, August 21, 2012

कविता की शक्ल

मेरे उस अकेलेपन में
कविता जब नहीं ले पाती है कोई शक्ल
मच जाता है हाहाकार
और लाचार हो उठता है एकान्त
यूँ कि अनजान देश
और भटका हुआ भूखा आदमी

भीड भरे बाज़ार में हाक लगाकर बेचता है कोई
ख्नानदानी दवा
कोई सस्ती हो रही सब्जी
कोई हर एक माल दस रुपए में
और मेरा कवि
वहाँ भी अकेला, कोने में
कि शक्ल बनी नहीं कविता की

शाम को घर पहुँचने पर
मुझे देखकर पत्नी मुस्कुराती है
मेरा रोम रोम हल्का हो जाता है, मानो रुई का फ़ाहा ..
मेरे हाहाकार को मिलता है एक विराम
अनिवार्य सा
मिल जाती है एक मुकम्मिल शक्ल
कविता को
पिघल जाता है मेरा अकेलापन ..

नहीं रह जाती है कोई जरूरत
किसी भी छोटे बडे परिचय की
राष्ट्र - धर्म- जाति - गोत्र - व्यवसाय से अतीत
एक दुनिया ...
मेरी और सिर्फ़ मेरी

बढ जाती है चमक चाँद की
अनायास, आ जाती है गंध हवाओं में
झिंगुर गाने लगते हैं ठुमरी
कि मेरी कविता हो जाती है तरल
पाने लगती है शक्ल
मनमाफ़िक
मेरा कवि, अचानक, हो उठता है इंसान
जो कभी नहीं था अकेला

2 comments:

rb said...

ek hi shabd kehna chahoungi is kavita ke liye


Beautiful !

Onkar said...

वाह, क्या सुन्दर कविता लिखी है आपने.