Tuesday, February 26, 2013

पत्र लिखने की ख्वाहिश

किसीको पत्र लिखने की ख्वाहिश
कई लोगों का पता ठिकाना होने के बावजूद
जैसी की तैसी है
लगता है -
कहीं उसे अच्छा न लगा तो ...

अगर आप नहीं खडे हैं कैमरा के सामने
तो दुनिया कितनी सजी हुई दिखती है
यूं कि पुराना बरगद
और उसके पास के ब्रह्मस्थान पर दीप जलाती किशोरियां
एक दूसरे की क्यारी को कनखियों से देख
उससे बचाकर संवारती अपनी कतार
फिर पूछती हुई - केश के जूडे और मेंहदी के फूलों का
सर्जनात्मक इतिहास
जिसकी मां मर भी गई है वह भी खूबसूरत दिखना जानती है

उसी थान से लगे पुरनी पोखर के चार महार
कोनों पर पनछोआ करते बच्चे या बूढे
फ़र्क इतना
कि बच्चे अशौच भी बतियाते हैं
स्नानघाट पर वे ही बूढे
आचमन कर राम भजो मन कहते कहते माथ नवाते
फिर कोई जब मिल जाता तो
अपने युग की कथा सुनाते
क्या दिन थे वे ...

खडे गांव के बाहर भी तब सुन सकते
पशु स्वर कलरव
बंधकर खंटे से कहते वे -धुंआ कर दो अब मच्छर है
कितना भव्य लगता है
आंगन की देहरी पर गाय का खूंटा, मानो शुद्ध पुण्य
शाम घनी तब हो जाती है
इष्टदेव को दीप जलाकर खुश करती हैं शुभ महिलाएं
बिना शिकायत
दीप हाथ में, घिरा अंधेरा
उज्ज्वल मुख कुछ मुदित प्रफुल्लित
पर कुछ कुछ चिन्ता की रेखा
पूरा जीवन - कटु भी मधु भी
कितना जीवन पाता है जो इनकी खातिर जीता है

शिशु चोट लगाकर रोता रोता आता है
मां हसती है, बुढिया दादी तमसाती है
फिर उठकर शिशु से पूछ रही किसने मारा .. उस पत्थर ने
चल पीटूंगी
बालक प्रतिहिंसा में उठकर चल पडता है
फिर दादी उससे पूछ रही खाया तूने ?
अब इसकी मां की खैर नहीं,
क्यों इतनी लापरवाही है .. मेरा मुन्नू क्यों भूखा है
चल मैं खुद तुझे खिलाती हूं
शिशु खाता है .. खाते खाते सो जाता है
आती तब तक रचनी बुआ ..

है कहां छिपी मेरी भौजी
आओ दईया मैं बैठी हूं .. मुन्नू को अभी सुलाया है
तभी बहुरिया पिढिया लेकर आती है
बुआ के पैर दबाती है
बस बस .. तू जा अब चौके में
देबन जी कबतक आता है ..
अच्छा अच्छा आता होगा  ..
ए भौजी तुम से फिर बोलूं
तू बडी नसीबों वाली है
इस कलजुग में यह बहू नहीं है, देवी है
घंटी टन टन .. साइकिल आई
देबन आए, सब मंगल है
हां हाईस्कूल में मास्टर है अंग्रेज़ी का


तब शाम हुई
अब रात हुई है गहराती
अब बात नहीं
अब राज नहीं
बस जीवन है .. ज्यों प्रेम प्रवाहित दरिया में
सुध बुध खोया आनन्दमग्न ..

किसको होगा याद
कौन करना चाहेगा याद , मैं पत्र लिखना चाहता हूं
उस जीवन को
जिसे सूंघता रहा .. फिर भी अतृप्त रहा
सूख गया गले का लार निगलते निगलते
कई लोगों का पता ठिकाना होने के बावजूद


   

3 comments:

रविकर said...

प्रभावी लेखन -
आभार आदरणीय-

कालीपद "प्रसाद" said...

जीवन का कोई पता नहीं होता =बेनाम बेपता
new postक्षणिकाएँ

Onkar said...

सार्थक रचना